रुचि को स्थानीय प्राइवेट स्कूल में अध्यापिका की नौकरी मिल गई. उस के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे, क्योंकि यह शहर का सब से नामी स्कूल था, अच्छी तनख्वाह, आनेजाने के लिए बस और सभ्यसुसंस्कृत परिवार के विद्यार्थी. उस ने अपने लिए विद्यालय के हिसाब से कपड़े सिलवाए.
पहले दिन ही जब वह स्कूल पहुंची तो उस के होश उड़ गए. जब उसे ड्रैस कोड से संबंधित एक सर्कुलर दिया गया और यही नहीं अगले दिन उसे 12 हजार रुपए भी जमा करने को कहा गया, क्योंकि वहां पर सब अध्यापिकाओं को यूनीफौर्म पहननी होती है जो उस नामचीन विद्यालय की प्रिंसिपल निर्धारित करती हैं और सब से मजे की बात यह है कि प्रिंसिपल खुद अपने लिए कोई ड्रैस कोड निर्धारित नहीं करती हैं. वे खुद प्लाजो, स्कर्ट, सूट, साड़ी या चुस्त चूड़ीदार पहन सकती हैं पर मजाल है कोई भी टीचर बिना यूनीफौर्म के स्कूल आ जाए.
ऐसा ही कुछ पूजा के साथ भी हुआ. एक निजी कंपनी में उसे अकाउंटैंट की पोस्ट मिली और साथसाथ मिला ड्रैस कोड पर लंबाचौड़ा फरमान. उस फरमान के हिसाब से:
- कोई भी महिला कर्मचारी 4 इंच से डीप गला नहीं पहना सकती है.
- बांहों की लंबाई कम से कम तीनचौथाई होनी चाहिए.
- साड़ी बस कौटन या सिल्क की ही पहन सकती हैं.
- हाई नैक ब्लाउज ही पहनना है.
आज भी आजादी के इतने वर्षों बाद महिला कर्मचारी अपनी पसंद के मुताबिक कपड़े नहीं पहन सकती हैं.
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मजबूरी या जरूरी
संस्थाओं की ही बात क्यों करें. महिलाओं को तो निजी जीवन में भी कपड़े चुनने की स्वतंत्रता नहीं है. अगर आप इस बाबत किसी ऐसे स्कूल की प्रधानाचार्य से बात करें जहां महिला अध्यापिका की यूनीफौर्म है तो उन का यही जवाब होगा कि टीचर्स रोल मौडल होते हैं और बहुत बार यंग टीचर्स यह निर्धारित नहीं कर पाते कि उन्हें कैसे कपड़े पहनने चाहिए, इसलिए मजबूरन उन्हें यह निर्णय लेना पड़ता है.