5 राज्यों की जनता को फरवरी, मार्च में फैसला करना है कि उन्हें शासन से क्या चाहिए. वे धर्म की रक्षा, मंदिर, चारधार्म यात्रा, आरतियां, ङ्क्षहदूमुसलिम विवाद और बढऩा पैट्रोल टैक्स, मंहगी होती गैस, दंगे, आंदोलन में से किसे चुने. जिसे भी चुना जाएगा वह रातोंरात न तो ङ्क्षहदू राष्ट्र बना पाएगा न महंगाई कम कर के सामाजिक मेलजेल को पटरी पर ले पाएगा. चुनाव शासकों की हर समय अधर में लटकाए रखते हैं पर अफसोस यह है कि चुनावों से सही सरकारों का जन्म नहीं हो पा रहा. हर चुनाव एक विक्षिप्त एक बच्चा पैदा कर रहा है और लोग सोचते हैं कि अगले चुनाव में कोई समझदार कमाऊ संतान पैदा होगी जो उन का भविष्य बनाएगी पर ऐसा नहीं हो रहा.

अब यह दोष किस का है कहना कठिन है पर इतना जरूर दिख रहा है कि लोकतंत्र की बेसिक समझ इस देश से गायब हो गर्ई है. जैसे शादीब्याहों में कुंडलियों, पूजापाठों, मन्नतों पर संबंध तय किए जाते हैऔर जैसे सफल सुखी वैवाहिक जीवन के लिए दुआएं और आरतियों पर निर्भर रहा कम रहा है वैसे ही राजनीति में टोटकों और जपतप पर चुनाव लडक़े जा रहे हैं. यह लोकतंत्र के लिए खतरा है, यह किसी भी देश की जनता को अंधकार भरे कमरे में धकेलने के जैसा है.

ये भी पढ़ें- गर्भपात की गोलियां: औरत की आजादी की निशानी

आज मतदाता 18वीं सदी की निरीह की तरह हो गया है जिसे सुनीसुनाई बातों के आधार पर कुंडली के बलबूते पर किसी के पल्ले बांध दिया जाता था और  वह किया जाता था कि तेज भाग्य अच्छा होगा तो पति राजकुमार निकलेगा, भाग्य खराब होगा तो वह भी होगा. मतदाता जिसे चुनता है, वह कैसा होगा, अब पता नहीं.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD48USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD100USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...