फैस्टिवल यानी त्योहार अब पहले जैसे नहीं रह गए. इन के मनाने का तरीका अब बदल गया है. पहले घर के लोगों के लिए 1 जोड़ी नए कपड़े खरीद लिए, घर की साफसफाई कर ली और त्योहार वाले दिन कुछ पकवान बना लिए, बस मन गया त्योहार. पर समय के साथ त्योहार मनाने का कल्चर भी बदल गया है और यह बदलाव महिलाओं और पुरुषों दोनों में दिखने लगा है. महिलाएं जिन से पहले घर सजाने और व्यंजन बनाने का ही काम लिया जाता था, वे अब ज्यादा प्रभावी हो कर फैस्टिवल का आनंद लेने लगी हैं. फैशनेबल कपड़ों से ले कर मेकअप और खरीदारी तक में उन की भूमिका सब से अहम रहती है. यही वजह है कि त्योहार आते ही हर तरफ रौनक आ जाती है. अक्तूबर से ले कर जनवरी तक पूरा माहौल सीजनमय बना रहता है. पहले दशहरा फिर दीवाली, क्रिसमस और उस के बाद न्यू ईयर सैलिब्रेशन यानी अक्तूबर माह के शुरू होते ही बाजारों में रौनक आ जाती है.

कई दुकानदारों से जब बात की गई तो पता चला कि जितनी उन्हें साल भर में कमाई होती है उतनी कमाई वे अक्तूबर से दिसंबर तक में ही कर लेते हैं. त्योहारों में सब से बड़ी भूमिका फैशन और ब्यूटी बाजार की होती है. पहले लोग डिजाइनर कपड़े कम ही पहनते थे, क्योंकि वे काफी महंगे होते थे. उन के महंगे होने का सब से बड़ा कारण यह था कि वे हाथ से तैयार होते थे. बाद में डिजाइनरों को महसूस होने लगा कि जब तक कपड़े सस्ते नहीं होंगे ज्यादा लोग इन्हें खरीदेंगे नहीं. इसी वजह से अब डिजाइनर कपड़ों को मशीनों से तैयार किया जाने लगा है, जिस से ये सस्ते हो कर आम लोगों की पहुंच में भी आ गए. पर कहते हैं न कि केवल अच्छी ड्रैस पहन लेने से कुछ नहीं होता, खुद को सुंदर दिखाना भी जरूरी है. इसीलिए फैशन के साथसाथ ब्यूटी का बाजार भी बढ़ गया. पर सजधज कर घर में भी तो नहीं बैठा जाता. इसलिए शौपिंग भी खूब होने लगी.

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