नारी अस्मिता और राजपूती गौरव का बहाना ले कर संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘पद्मावती’ पर मचाया जा रहा शोर असल में हमारी सोच के कट्टरपन की पूरी पोल खोल रहा है. 21वीं सदी में जीते हुए और एटम बम बनाने या चंद्रयान, मंगलयान भेजने वाला यह देश असल में आज भी 16वीं सदी से आगे नहीं बढ़ पाया है जब सुनीसुनाई बातों पर विश्वास करने में भारत और यूरोप में कोई फर्क नहीं था.
हम ने कहने को तो लोकतंत्र अपना लिया है, जिस में विचारों की स्वतंत्रता को महत्त्व दे दिया है पर असल में हम आज भी पौराणिक युग में ही जी रहे हैं जब औरतों को लगभग सभी समाजों में, उन समाजों में भी जिन से हमारा सीधा संबंध न के बराबर था, दबा कर, गुलामों से भी बदतर तरीके से रखा गया था.
‘पद्मावती’ में ऐसा क्या है, जिस से राजपूत कहे जाने वाले लोग बौखला रहे हैं का पता तो फिल्म के प्रदर्शन के बाद ही चलेगा पर इस में नैतिक, ऐतिहासिक और प्रस्तुतिकरण के बारे में कुछ आपत्तिजनक नहीं है, यह सुप्रीम कोर्ट के रुख से स्पष्ट है.
मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा लिखित पुस्तक ‘पद्मावत’ पर आधारित राजस्थानी पृष्ठभूमि की कथा में अगर कुछ बुरा लगने वाला है तो वह यह है कि उस युग में एक पुरुष अपनी पत्नी को बचाने के लिए उस पर सौदा करता था, उसे राजगद्दी बचाने के लिए इस्तेमाल करता था. उस की पत्नी हमलावर के पास जाना चाहती थी या नहीं यह छोडि़ए पर उस युग की औरतें संपत्ति ही थीं यह जरूर कहानी में स्पष्ट है. इस कहानी पर बनी फिल्म यदि उस काल की याद दिलाए तो इस में क्या हरज है खासतौर पर तब जब आज भी जमाना कुछ वैसा ही सा है.
कहने को तो हमारे विश्वविद्यालय लड़कियों से भरे हैं, महिलाएं मंत्री हैं, अफसर हैं, प्रबंधक हैं पर जरा सी परत कुरेदेंगे तो पता चल जाएगा कि औरतें आज भी सौदे की चीज हैं. इसे दर्शाना और पृष्ठभूमि के लिए किसी प्राचीन रचना का इस्तेमाल करना कतई गलत नहीं है. कट्टरपंथियों को यह हक नहीं कि वे इस का विरोध कर समाज में पुराने व सड़ेगले मूल्यों को फिर से स्थापित करने की कोशिश करें.
अगर हम हर जगह शिवाजी, महाराणाप्रताप, देवीदेवताओं की मूर्तियां लगाएंगे कि ये सब हमारे आदर्श हैं, तो हमें यह अवसर भी मिलना चाहिए कि इन आदर्श ऐतिहासिक, पौराणिक या धार्मिक मूर्तियों के पीछे का सच क्या है, बता सकें. असल में इन आदर्शों की गलत बातें समाज भूलता नहीं है और राम का सीता को निकालना, विष्णु का मोहिनी अवतार बनना, शिव का जहर पीना, देवताओं का अमृत छीनना, शिवाजी का जाति विशेष से होना, राजपूतों का मुगलों से समझौता कर लेना न न करते भी उदाहरण देने के काम आता है.
परदा प्रथा, घर के लिए महिलाओं की बलि देना, कन्या भू्रण हत्या, बेटी को घर में बंद रखना आदि उसी कट्टर सोच का हिस्सा हैं जिस में समाज सदियों तक जीता रहा है और आज की नई वैचारिक क्रांति के बावजूद देश भर की औरतों पर जुल्मों की कमी नहीं है. महिला आयोग के पास आने वाली सैकड़ों शिकायतें यह स्पष्ट करती हैं कि भारतीय समाज में औरतों के साथ मारपीट, बलात्कार, छेड़खानी, संपत्ति में हिस्सा देने में आनाकानी करना अभी भी बंद नहीं हुआ है.
फिल्म ‘पद्मावती’ का विरोध करने वाले लोग वे ही हैं, जो नहीं चाहते कि पौराणिक सोच में कोई परिवर्तन हो, लोग नई चेतना, नए प्रकाश में जिएं.
ये लोग पुरोहित, पंडे, मौलवी, पादरी का तंत्र बनाए रखना चाहते हैं. अब इन्होंने राष्ट्रवाद और देशभक्ति का बहाना भी लेना शुरू कर दिया है और धार्मिक कट्टरता को देश की अस्मिता का नाम देना शुरू कर दिया है. हिंदू समाज बड़ी चतुराई से मुसलिम या ईसाई कट्टरपन की भी रक्षा करने लग गया है ताकि धर्म के हर सुधार को देशभक्ति पर उठाए सवाल के बराबर मान लिया जाए.