वाराणसी के संगीत परिवार में जन्मे बांसुरीवादक पारसनाथ का जन्म और पालन-पोषण दिल्ली में हुआ. कला के माहौल में पैदा हुए पारसनाथ को अपने दादा स्वर्गीय पंडित शिवनाथसे प्रारंभिक बांसुरीवादन का प्रशिक्षण मिला. इसके बाद उन्होंने दादी राम देवी से सुबह का राग भैरव सीखा.पिता पंडित अमरनाथसे भी बांसुरी की बारीकियां और माँ मीनानाथ से बनारसी धुन सीखा और स्टेज पर परफॉर्म करने लगे.उन्होंने पारंपरिक इंडियन क्लासिकल म्यूजिक को बांसुरीवादन के द्वारा नए ज़माने के अनुसार कर्णप्रिय बनाया है, ताकि आज के युवा भी इस संगीत को सुनने की रूचि रखे. उन्होंने केवल देश में ही नहीं, विदेशों में भी बांसुरीवादन को लोगों तक पहुँचाने में समर्थ रहे. उन्होंने लन्दन, अफ्रीका और तुर्की आदि कई देशों में अपनी कला का प्रदर्शन किया. लॉक डाउन के बाद उन्होंने तनाव भरे माहौल को शांत करने के लिए एक ट्रैक ‘वहदानियत’ लांच किया है, जिसके प्रशंसक करोड़ों में है. उन्होंने अपनी जर्नी के बारें में बात की, पेश है कुछ खास अंश.
सवाल-क्लासिकल संगीत की परम्परा अब कम हो चुकी है, क्योंकि नयी जेनरेशन की चॉइस अलग हो चुकी है, आप बांसुरी बजाते समय इस बात का कितना ध्यान रखते है?
संगीत की दुनिया में हमेशा श्रोताओं की पसंद का ख्याल रखा जाता है. संगीत के क्षेत्र में संगीत या तो अच्छा होता है या ख़राब होता है, उसके बीच में कुछ नहीं होता. बांसुरी बजाते समय मैं अपने सभी गुरुओं को याद करता हूं और कोशिश करता हूं कि संगीत मेलोडी बेस्ड हो. इसी को ध्यान में रखते हुए मैंने वहदानियत एक ट्रैक लांच किया है, जिसे सभी पसंद कर रहे है. वहदानियत का अर्थ है एकता. असल में संगीत पूरी दुनिया को एक कर देती है. इसमें भाषा या धर्म की कोई बाउंड्री नहीं रहती. मैने कई अलग भाषाओँ में बांसुरी बजाई है, लेकिन हमेशा मुझे हर भाषा अपनी ही लगी है. भारत में हर 1000 किलोमीटर पर भाषा बदलती रहती है, इसके बावजूद शास्त्रीय संगीत के धरोहर अपने आपमें बहुत रिच है. मेरा अनुभव है कि संगीत एक समुद्र है, उसमें कितनी भी डुबकी लगा लूँ, गहराई में उतर जाऊं, ये ख़त्म नहीं हो सकता. इसके अलावा संगीत के नाम पर वह संगीत ही रहे, किसी प्रकार की शोर या तमाशबीन न बनें, इसका ध्यान रखा जाता है.
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सवाल-आप ‘न्यू एज मेस्ट्रो’के रूप में ग्लोबल प्लेटफॉर्म पर जाने जाते है, इस बात से आप कितना ताल्लुक रखते है?
मैंने हमेशा खुद को नए ज़माने के संगीतज्ञ के रूप में परिचित करवाया है, क्योंकि आज के यूथ काफी अच्छा संगीत सीखकर आते है. ये कहना गलत होगा कि आज के यूथ संगीत को सीरियसली फोलो नहीं करते, जबकि वे परंपरागत म्यूजिक से भी अधिक शिद्दत सेपारंपरिक संगीत सीखते है. अगर परंपरागत संगीत को अच्छी तरह से प्रमोट किया जाय, तोउसके प्रति रूचि अवश्य बढ़ेगी. बेसिक यमन राग को हर विद्यार्थी पहले सीखते है, उसे सीखे बिना वे आगे नहीं बढ़ सकते. इसलिए ये राग अभी भी कायम है और सदियों तक रहेगा. देश की जनता बहुत प्यारी और सहयोग देने वाली है, ऐसे में उन्हें क्या दिया जा रहा है, उस पर विचार करने की जरुरत है.
सवाल-आप बहुत कम उम्र से परर्फोरमेंस कर रहे है, आपकी जर्नी कैसे शुरू हुई?
मेरा पहला परफोर्मेंस 6 साल की उम्र में था. वहां से शुरू होते-होते मैंने 5वीं में पढ़ते हुए ही पहला स्टेज परफोर्मेंस, नृत्यांगना सोनल मानसिंह के साथ किया था. मैंने काम करते-करते हर चीज सीखा है. जहाँ भी मैं जाता था, हर कोई मुझसे बड़ा ही होता था. उम्र में मुझसे सभी बड़ों के साथ के साथ मैंने बांसुरी बजायी है और सबसे मैं कुछ न कुछ सीखता आया हूं. दादा और पिता के अलावा मैंने दादी से भी सुबह का राग भैरव सीखा है. कई संगीत निर्देशकों के साथ भी मैंने बांसुरी बजाया है. घर में सीखना और बाहर जाकर सीखने में बहुत अंतर रहता है. मेरा एक भाई पंकज नाथ भी बांसुरी बजाता है, इसलिए हम दोनों भाई मिलकर नाथ बंधू के नाम से कॉन्सर्ट करते है.
सवाल-संगीत के श्रोता भारत में अच्छे है या विदेश में? श्रोता सही न हो तो बांसुरी बजाना कितना मुश्किल होता है?
संगीत के श्रोता देश और विदेश में दोनों जगहों पर है, लेकिन विदेश में भारत से अधिक लोग संगीत को पसंद करते है. खासकर यूरोप में शास्त्रीय संगीत को बहुत ही मेडिटिव तरीके से लिया जाता है. मुझे कभी-कभी आश्चर्य होता है कि वे बिना भाषा जाने भी संगीत को कितना एन्जॉय कर रहे है. मैंने देखा है कि हमारे संस्कृति के बारें में विदेशी अधिक जानना चाहते है और सबकुछ छोड़कर बनारस, लखनऊ, वृन्दावन आदि जगहों पर रहते है, लेकिन हम सब परिवार छोड़कर कही नहीं जाते और न वहां की संस्कृति को जानने की इच्छा रखते है.
सवाल-गुरु शिष्य परंपरा आज ख़त्म हो चुकी है, हर चीज पैसे से खरीदी जाती है, ऐसे में कला को बचाना कितना मुश्किल हो चुका है?
पहले ईमानदारी अधिक थी, जो अब नहीं है. मेरे दादाजी और पिता के समय सैकड़ो शागिर्द हमारे घर आकर रहते और संगीत सीखते थे. उनका ध्यान मेरी दादी और माँ बच्चे की तरह रखते थे. किसी भी शागिर्द से कभी पैसे नहीं लिया गया. इसके अलावा उन्हें तैयार कर मंच दिया जाता रहा है. मैं भी ऐसा ही करता हूं. यही अंतर गुरु शिष्य और टीचर, स्टूडेंट में है,क्योंकि अब पैसे से शिक्षा खरीदी जा रही है. पहले गुरु की जिम्मेदारी होती थी, जिसमे शिष्य उसको फोलो करता था. आज के शिष्य में धैर्य नहीं होता. वे जल्दी-जल्दी सब करना शुरू कर देते है. इसके अलावा सोशल मीडिया भी इसमें जिम्मेदार होती है, जिसमे कुछ भी करने से लोगों का रेस्पोंस मिलने लगता है, इससे मन भटकता है और संगीत से छात्र दूर होने लगते है. पहले माध्यम कम था, लेकिन मूल्यवान था.
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सवाल-आपका आगे की योजनायें क्या है?
मैं चाहता हूं कि मैं देश-विदेश के हर कोने में बांसुरी बजाऊ और सबको इसके सुर से सरोबार कर दूँ. इसके अलावा एक सपना यह भी है कि किसी दिन पूरी दुनिया एक समय में एक ही नाद को बजाये, ताकि सबको आनंद की अनुभूति हो.
सवाल-क्या कोई मेसेज देना चाहते है?
मेरा सभी से कहना है कि पिछला साल काफी चुनौतियों भरा था. इस महामारी में लोगों ने कई प्रियजनों को खोया है. मैं चाहता हूं कि ऐसी परिस्थिति फिर कभी जीवन में न आये. इसके अलावा कोविड 19 ने यह सिखा दिया है कि सबसे जरुरी अब स्वास्थ्य है. स्वास्थ्य सही रहने पर सब काम हो सकता है. कोई भी बीमार न हो और हमेशा अच्छी संगीत सुनें , जिससे चेतना अच्छी रहती है. सकारात्मक सोच रखें.