वर्ष 2010में घटित 2 घटनाओं से देश भर के लोग चौंक गए थे. ये दोनों घटनाएं हमारे देश के 2 बड़े महात्माओं से जुड़ी हुई हैं. पहला वाकया है कृपालु महाराजजी के एक आश्रम का. वैसे कृपालु महाराजजी किस पर अपनी कृपा लुटाते हैं यह तो पता नहीं लेकिन इन के बारे में ऐसी खबरें अखबारों में छपती रहती हैं कि इन के कई आश्रमों में आमजन की हड़पी हुई जमीन शामिल है. यही नहीं, इन पर दूसरे संगीन आरोप भी लगते रहते हैं.
बहरहाल, आज राजनेताओं की तरह महात्मा भी काफी बेशर्म हो चुके हैं. आरोपों का इन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. ये तो ‘राम नाम जपना पराया माल अपना’ को अपने जीवन में उतार चुके हैं. हमें तो अध्यात्म के मार्ग पर चलने का संदेश देते हैं और खुद उस पर चलना नहीं चाहते.
4 मार्च, 2010 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के पनगढ़ गांव में कृपालु महाराज के एक आश्रम ‘भक्तिधाम’ के वार्षिक समारोह में यहां के गरीब लोगों को खाना, कंबल, बरतन और नकद पैसा बांटा जाना था. गरीब लोग मुफ्त का सामान पाने के लिए एकदम से झपट पड़े. भगदड़ मच गई और नतीजा यह हुआ कि देखतेदेखते 63 लोग मौत के मुंह में समा गए. मरने वालों में 37 बच्चे और 26 महिलाएं थीं.
एक प्रवचन का अंश
साधुमहात्माओं से समाज को कोई सही प्रेरणा मिलती है, ऐसा कतई नहीं है. फिर भी कृपालु महाराज की यह उपलब्धि तो है कि इन के शिष्यों में वकील, पत्रकार, न्यायाधीश, उद्योगपति आदि सभी तबके के लोग हैं. और इस की एक वजह है कि कृपालु महाराज तोतारटंत में काफी प्रवीण हैं. वेदों की ऋचाएं, शास्त्रों के श्लोक, पुराणों की कहानियां, रामायण की चौपाइयां उन्हें याद हैं. लोगों को प्रभावित करने के लिए यह कला काफी है. कृपालु महाराज के प्रवचन का एक अंश ही उन के चरित्र को समझने के लिए काफी होना चाहिए.
प्रसंग था कि कृष्ण का जन्म जेल में क्यों हुआ. इस पर कृपालु कह रहे थे कि कृष्ण का जन्म जेल में होना हमारे लिए एक प्रतीक है. दरअसल जेल हमारे पापों का प्रायश्चित्त स्थल है. वहां पर पाई सजा का प्रायश्चित्त करते हैं तो हमारा एक नया जन्म होता है. वे कह रहे थे कि वेद में कहा गया है, ‘‘मनुर्भव’’ अर्थात मनुष्य बनो. वसुदेवदेवकी ने जेल में अपने 8 बच्चों को जन्म दिया. इसलिए यदि हमें भी जेल जाना पड़ जाए तो उसे सहज स्वीकार करें और इसे ईश्वर की इच्छा मान कर हमें अपने पापों का शमन करना चाहिए.
कृपालु महाराजजी की इस व्याख्या का अर्थ निश्चित ही यह माना जाएगा कि यह एक आध्यात्मिक विश्लेषण है. लेकिन 4 मार्च को जितने भी बेगुनाह लोग मारे गए या घायल हुए इस के लिए कृपालु महाराज सीधेसीधे जिम्मेदार हैं.
कायदे से होना तो यह चाहिए था कि कृपालु महाराज इन मौतों का अपराध अपने ऊपर लेते और जेल जाने का नैतिक साहस दिखाते. लेकिन इस हादसे पर उन की प्रतिक्रिया उन्हें एक धूर्त आदमी सिद्ध करती है. उन का कहना था कि आश्रम की तरफ से किसी को निमंत्रण नहीं भेजा गया था. लोग खुद ही भंडारे में आए थे. जाहिर है गरीबों को प्रलोभन और अव्यवस्था का शिकार बना कर वे इस हादसे को ईश्वर पर थोप कर खुद साफ बच निकले हैं.
यहां हम एक और घटना का जिक्र करते हैं. यह घटना आध्यात्मिक गुरु श्रीश्री रविशंकर के साथ घटित हुई थी. 30 मई की शाम को रविशंकर अपना सत्संग समाप्त कर के अपने आश्रम की तरफ जा रहे थे. जैसे ही वे जीप में बैठे कि किसी ने बंदूक से उन की तरफ गोली दाग दी. संयोग से वह गोली उन्हें न लग कर साथ चल रहे उन के एक शिष्य को जा लगी. वह मामूली घायल हो गया. इस घटना पर रविशंकरजी बुरी तरह बिफर पड़े थे और कहने लगे कि यह तो ईश्वर की कृपा रही कि गोली उन्हें नहीं लगी. वे मीडिया से यही कहते रहे कि पुलिस अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती. उसे मामले की पूरी जांच करनी चाहिए.
कुछ दिनों बाद पुलिस जांच में यह बात साफ हो गई कि पास के एक फार्म हाउस के मालिक ने आवारा कुत्तों को भगाने के लिए गोलियां चलाई थीं. उन में से एक गोली रविशंकरजी की तरफ चल पड़ी.
इन के उपदेश
श्रीश्री रविशंकरजी महाराज ‘आर्ट औफ लिविंग’ के संस्थापक हैं. आप आदमी को अध्यात्म के द्वारा किस तरह जीना चाहिए, यह सिखाते हैं. देशविदेश में हजारों की संख्या में इन के शिष्य हैं. अपने सत्संग में यह लोगों को उन की परेशानियों से भरे प्रश्नों का उत्तर भी देते हैं. यही तो उन की जीने की कला अर्थात ‘आर्ट औफ लिविंग’ है. ऐसे ही कुछ प्रश्नों के उत्तरों पर यहां गौर करें :
पीडि़त : श्रीश्री जी, मेरे घर में चोरी हो गई थी. काफी कीमती सामान चला गया. पुलिस ने भी रिपोर्ट दर्ज नहीं की है.
रविशंकर : संसार का कोई भी सामान कीमती नहीं होता. कीमती तो हमारी आत्मा है और सब से कीमती है परमात्मा. न्याय की आशा पुलिस से नहीं परमात्मा से करनी चाहिए.
पीडि़त : कोई हमारा अपमान करे, हमें दुख पहुंचाए तो श्रीश्रीजी हम क्या करें?
रविशंकर : परमात्मा का शुक्रिया अदा करें. अपमान सहने से हमारा अभिमान पिघलता है. अभिमान पिघलेगा तो परमात्मा हमारे करीब आएगा. किसी भी तरह का दुख या संकट आने पर हमें अपने कार्यों का चिंतन करना चाहिए.
रविशंकर के इन आध्यात्मिक समाधानों पर हम गौर करें तो सहज ही पाएंगे कि ‘आर्ट औफ लिविंग’ के नाम पर वे आम आदमी की जिंदगी का मजाक ही उड़ाते हैं. वे लोगों से कहते हैं कि न्याय की आशा पुलिस से नहीं परमात्मा से करें. और खुद पुलिस से जांच की जिद करते रहते हैं. लोगों से कहते हैं कि मृत्यु निश्चित है और खुद इस बात से परेशान हो जाते हैं कि अगर गोली उन को लग जाती तो क्या होता.
गोली चलने की इस घटना के साथ रविशंकरजी का कूटनीतिक चरित्र भी हमारे सामने आया. एक तरफ तो अज्ञात हमलावर के खिलाफ थाने में मुकदमा पंजीकृत हुआ और रविशंकर खुद पुलिस जांच की मांग करते रहे. दूसरी तरफ रविशंकर यह बयान भी देते रहे कि मैं ने हमलावर को माफ कर दिया है. वह मेरे सत्संग में आए मैं उसे सुदर्शन क्रिया और मैडिटेशन सिखाऊंगा, ताकि उस का हिंसक चित्त अहिंसक हो सके.
हिंसक परमात्मा
हमारी अपनी समझ में वे सभी साधुमहात्मा हिंसक हैं जो अपने उपदेशों से लोगों के जीवन को आहत करते हैं. हिंसा का अर्थ किसी की हत्या कर देने से नहीं होता है. हमारा हर वह कार्य हिंसा के दायरे में आता है, जो जानेअनजाने लोगों को दुखी करता है. आज अगर समाज के ज्यादातर लोग हताश, निराश और परेशान हैं तो इस में हमारे साधुमहात्माओं का भी बहुत बड़ा योगदान है. यहां समझने वाली बात यह है कि हमें अपनी परेशानियां अपने ढंग से ही दूर करनी होंगी. परमात्मा जिस का कोई वजूद नहीं हमारी परेशानियों को दूर करने के लिए वह भी नहीं आने वाला. अगर इनसान की परेशानियां परमात्मा ही दूर कर देता तो लाखोंकरोड़ों लोग इतने परेशानहाल न होते.
यह कितनी विचित्र बात है कि उपदेशक साधुसंत खुद तो आलीशान जीवन जीते हैं लेकिन आम आदमी को ये उपदेश यही देते हैं कि धन में सुख नहीं है. अगर तुम धन से प्यार करोगे तो परमात्मा नहीं मिलेगा. मोक्ष को जीवन का परम लक्ष्य बताने वाले महात्माओं की वजह से आम आदमी ने गरीबी में मजा लेने की आदत डाल ली है.
अपने घरमकान की देखभाल करने पर भी हमारे महात्माओं को ऐतराज है. वे कहते हैं कि क्यों व्यर्थ ही घरमकान की चिंता करते हो. यह सब तो यहीं छूट जाना है, साथ कुछ नहीं जाएगा. लेकिन अपना आश्रम बनाने के लिए ये महात्मा सरकार या आप लोगों की जमीन भी घेर लेते हैं. जिन आचरणों पर महात्मा खुद नहीं जी पाते उन आचरणों पर लोगों को जीने के लिए प्रेरित करना हमारी समझ में हिंसा से भरा कार्य है.
संसार असत्य है. यह जगत एक धर्मशाला की तरह है. हमारे बेटाबेटी पूर्व जन्म के हमारे कर्जदाता हैं, जो अपना कर्ज वसूलने आए हैं. निष्काम कर्म का फंडा भी हिंसक विचार हैं. इन विचारों की वजह से समाज में परस्पर हिंसा फैलती है. परिवारों में कलह रहती है. जब बेटाबेटी और मांबाप कर्जदाता और कर्जदार ही समझे जाएंगे तो इन के बीच प्रेम पनपेगा भी कैसे? महात्माओं के निष्काम कर्म के उपदेश ने आम आदमी को कर्महीन और आलसी बना दिया है. नकारात्मक सोच की वजह से अकर्मण्यता और आलस्य का विस्तार नहीं होगा तो और क्या होगा?