‘अगर 2 बालिगों के बीच सहमति से संबंध बनते हैं तो इसे अपराध नहीं कहा जा सकता.’ सुप्रीम कोर्ट की बीती 11 जुलाई की यह टिप्पणी लाखों एलजीबीटी यानी लैस्बियन, गे, बाई सैक्सुअल और ट्रांसजैंडर्स को राहत देने वाली थी. हालांकि लंबी सुनवाई के बाद भी यह अभी पूरी तरह तय नहीं हो पाया है कि समलैंगिकता अब अपराध नहीं है.
पर यह दिख रहा है कि समलैंगिक अपने अधिकारों की लड़ाई जीतते नजर आ रहे हैं. इस के हकदार वे हैं भी और क्यों हैं इस का खुलासा खुद उच्चतम न्यायालय एक वाक्य में कर चुका है कि अगर 2 वयस्क अपनी सहमति से संबंध बनाएं तो यह अपराध कैसे मान लिया जाए.
सुप्रीम कोर्ट में 3 दिन चली यह बहस उस बहस से कहीं ज्यादा दिलचस्प और महत्त्वपूर्ण थी जो चौराहों और सोशल मीडिया पर आएदिन होती रहती है. गौरतलब है कि समलैंगिकों की ओर से दायर एक याचिका पर चली सुनवाई में केंद्र सरकार ने यह जिम्मेदारी सुप्रीम कोर्ट को सौंप दी थी कि वह तय करे कि समलैंगिक संबंध अपराध हैं या नहीं.
सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं की तरफ से वरिष्ठ अधिवक्ता अरविंद दातार का कहना था कि समलैंगिकता कोई बीमारी नहीं है. यौन रुझान और लैंगिक पहचान दोनों समान रूप से किसी की प्राकृतिक प्रवृत्ति के तथ्य हैं और किसी व्यक्ति का यौन रुझान अलग है तो उसे अपराध नहीं कहा जा सकता.
इस दिलचस्प बहस में सुप्रीम कोर्ट का मूड समलैंगिकों के पक्ष में दिखा तो इस की कई वजहें भी हैं, उन पर भी अदालत में खुल कर चर्चा हुई. गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने ही अपने पुराने आदेश पर पुनर्विचार का फैसला लिया था. याचिकाकर्ताओं की दलील यह थी कि इंडियन पीनल कोड की धारा 377 संविधान के अनुच्छेद 21 (जीने का अधिकार) और अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) का उल्लंघन है. यह आश्चर्य है कि 60 वर्ष के जज आज के युवा नेताओं से ज्यादा उदार हैं.