भारतीय समाज में शुरू से ही युवतियों पर तरहतरह की पाबंदियां लगाई जाती रही हैं. उन्हें युवकों के मुकाबले कमतर आंका जाता रहा है. परिवार में, चाहे वे उच्चवर्ग के हों या मध्यवर्ग के, शिक्षित हों या कम पढ़ेलिखे, बेटी के जन्म पर उतनी खुशियां नहीं मनाते जितनी बेटा होने पर. बेटा होने पर पूरे महल्ले व बिरादरी में मिठाइयां बांटी जाती हैं, हफ्तों जश्न का माहौल रहता है. लड़का हुआ है शुभ लक्षण है इसलिए ब्राह्मण भोज कराया जाता है, लड़के के हाथ से छुआ कर मंदिरों में चढ़ावा चढ़ाया जाता है. नामकरण से ले कर मुंडन तक सभी अवसरों को पूरे तामझाम के साथ मनाया जाता है.
बेटे के जन्म की खुशी के पीछे भावना यह होती है कि वह वंशबेल को आगे बढ़ाएगा. इतना ही नहीं बड़ा हो कर, पढ़लिख कर परिवार का आर्थिक सहारा बनेगा. जबकि बेटी को शुरू से ही पराई अमानत समझा जाता रहा है. वह तो एक दिन ससुराल चली जाएगी, तो फिर उस पर इतना खर्च क्यों किया जाए.
लड़की को शुरू से ही यह कह कर दबाया जाता रहा है कि तू तो लड़की है, तू घर में बैठ, चूल्हाचौका कर यही ससुराल में काम आएगा. ज्यादा उड़ने की जरूरत नहीं है.
इतनी कठोर पाबंदियों में लड़कियों की इच्छाओं का दमन हो जाता था, वे इसी को नियति समझ कर घरेलू काम में जुट जाती थीं और बड़ी होने पर किसी के साथ भी ब्याह दी जाती थीं. न ही उन की इच्छा पूछी जाती थी और न ही शादी से पहले लड़के का मुंह तक दिखाया जाता था. ऊपर से यह नसीहत और दे दी जाती थी कि वापस लौट कर मत आना. ससुराल से तुम्हारी लाश ही निकले इसी में सब की भलाई है.