एक समय था जब बेटियां घर के कामों में अपनी मां का हाथ बंटाने तक सीमित होती थीं. घर का चूल्हाचौका, मेहमानों की खातिरदारी बस यही उन की नियति थी. शिक्षा पूरी होने से पहले ही उन्हें विवाह के बंधन में बांध दिया जाता था. पर बदलते जमाने के साथ बेटियों पर न सिर्फ मातापिता, बल्कि समाज की भी सोच बदली है. आज के बदलते जमाने की दौड़ में बेटियां हर क्षेत्र में बेटों से आगे निकल रही हैं.
सीबीएसई बोर्ड, यूपी बोर्ड, आईसीएसई बोर्ड इन सभी में लड़कियों का रिजल्ट लड़कों से बेहतर रहता है. समाज की रूढि़वाद सोच को पछाड़ कर आज बेटियां अपनी उड़ान भी भर रही हैं और साथ ही अपना फर्ज भी पूरी निष्ठा के साथ निभा रही हैं.
ऐसा नहीं है कि बेटे अपना कर्तव्य निभाने से चूक रहे हैं पर जिस तरह घर की औरतें, बेटियां घरपरिवार को संभालने के साथसाथ बाहर समाज में भी अपनी एक पहचान बना रही हैं बेटे ऐसा नहीं करते. वे सिर्फ बाहर के कार्यों तक ही सीमित रह जाते हैं.
सोच बदलने की जरूरत
जब एक लड़की घर के कामों के साथसाथ बाहरी कामों को भी पूरा कर सकती है तो घर के लड़के क्यों नहीं? घर के काम के प्रति बेटों की रुचि कम देखने को मिलती है. यदि घर की महिला रसोई का काम करती है तो घर का पुरुष घर के पंखे साफ क्यों नहीं कर सकता? जरूरी नहीं घर के काम का मतलब रसोई संभालना है. घर में रसोई के अलावा भी बहुत से ऐसे काम होते हैं, जो पुरुषों द्वारा आसानी से किए जा सकते हैं जैसे प्लंबर को बुलाना या इलैक्ट्रिशियन को.