देश भर में कोरोना के कारण एक नेगेटिव माहौल है, एक डर है, मौत से ज्यादा डर मौत से पहले की तड़पन का है, चिकित्सा सुविधाओं के अभावों का है. आमतौर पर जब डर का माहौल होता है, आशा होती है कि सरकार कुछ करेगी, खाली हाथ पर हाथ धरे बैठी नहीं रहेगी. पर यहां तो साफ दिख रहा है कि जो सरकार 2014 में जनता की उम्मीदों के बड़े डैनों वाले पंखों पर सवार हो कर आई थी वह तो गिद्ध निकली है और मौका ढूंढ़ती है कि जनता की लाशों से कैसे राजनीति की जाए, कैसे उन्हें मुनाफा जाए, डर का कैसे लाभ उठाया जाए.
आज हर घर में जो परेशानी है उस का बड़ा बोझ औरतों पर है. वैसे भी दुनिया में जब भी जंग या राजनीतिक उठापटक हुई अंतिम भुगतान औरतों ने किया है. आदमी तो शहीद होते हैं पर अपने पीछे अपने छोड़े खंडहरों को संभालने के लिए औरतों को छोड़ जाते है जो बच्चों की देखभाल, अपने शरीर की देखभाल रह जाती हैं, सोचा गया था कि औरतों को वोट का बराबर का अधिकार मिलेगा तो सरकारें औरतों के बारे में सोचेंगी पर सरकारों ने, शासकों ने, इस तरह का खेल खेला है कि आज कोरोना जैसी आपदा में भी सरकार आंसू पोंछने के लिए कहीं नहीं दिख रही.
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कोरोना के दिनों में सरकार ने अपने हाथों या अपनी सुविधाओं में कहीं कोई कमी नहीं की है. देश भर में कर उसी गति से लग रहे हैं और सरकार बारबार बड़े गर्व से कहती है कि लो उस बार फिर जीएसटी का पैसा ज्यादा है. जीएसटी का पैसा ज्यादा आने का अर्थ है लोगों ने उसी कीमत का सामान खरीदने में ज्यादा कर चुकाया क्योंकि इस देश में कुल उत्पादन तो बढ़ रहा है. यह अतिरिक्त पैसा किसने दिया? औरतों ने जिन्होंने और कटौती की.
कोविड की भय के कारण औरतों को घरों में कैद ज्यादा किया गया है. वे ज्यादा नुकसान में हैं. जो कमा कर लाती थीं वे भी और जो नहीं लाती थीं वे भी चार दिवारी में बंद हो कर रह गई हैं और न रिश्तेदारों से मिलबैठ सकती हैं न पड़ोसियों से मिल सकती है. अगर घर में किसी को कोविड हो जाए तो वे ही सब से ज्यादा बोझ ढो रही है और वह सरकार जो उन का यह जन्म व अगला जन्म या मृत्यु के बाद स्वर्ण में स्थान सुरक्षित करने के नाम पर आई थी कहीं नजर नहीं आ रही.
जब दूसरे देशों की सरकारों ने राहत के लिए लोगों के अकाउंटों में पैसा डाला है. भारत में पैट्रोल, घरेलू गैस के दाम बढ़े हैं, रोजमर्रा की चीजों पर मिलने वाली छूट कम हुई है, दवाएं मंहगी हुई हैं, आय कम हुई है और यह सब सरकार ने किया है.
यह वह सरकार है जिस ने पश्चिमी बंगाल में ताबड़तोड़ चुनावी सभाएं की जिन में प्रधानमंत्री कहते थकते नहीं रहे कि ‘जहां तक मेरी नजर जाती है वहां तक लोग ही लोग.’ दूसरों पर 4 जने इकट्ठे हो जाएं डंटे मारने वाली सरकार ने इस भारी भीड़ को बिना मास्क, गाल से गाल मिला कर बैठने की इजाजत दी जबकि देशभर में कितने ही जगह पुलिस वालों ने औरतों को भी बाजार से सामान लानेजाने के समय मास्क न पहनने पर बुरी तरह लाठियों से पीटा है जो बहुत से वीडियों में कैप्चर किया गया है.
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आमतौर पर ‘जनता’ शब्द का इस्तेमाल कर के यह मान लिया जाता है कि सरकारी आतंक को आदमी ही झेल रहे हैं पर यहां ‘जनता’ का अर्थ अब औरतें ही रह गया है जो अपनी बात केवल रटीरटाई आरती या भजन से कह सकती हैं और किसी काल्पनिक भगवान की प्रार्थना कर मर जाती हैं. सदियों से स्त्रियां और द्रोपदियां दंड झेलती रही हैं ताकि राम और युधिष्ठर के अहम की तुष्टि होती रहे. आज हमें इस का वीभत्स रूप दिखने को मिल रहा है और महान शासक अपनी छवि निखारने के लिए नए महल को बनवाने में लगे हैं मानो महल के बाहर कहीं कुछ खराब हो ही नहीं रहा.