जिस समय मैं ये पंक्तियां लिख रही हूं हिंदुस्तान में लाॅकडाउन का 19वां दिन चल रहा है. लेकिन यह तालाबंदी अकेले हिंदुस्तान में नहीं है, करीब-करीब आधी से ज्यादा दुनिया इन दिनों तालाबंदी का शिकार है. इसके पीछे एक ही मकसद है कि किसी तरीके से कोरोना के कहर का दुष्चक्र टूट जाए. कोरोना की एक बार श्रृंखला टूटे तो फिर से सामान्य जिंदगी लौटे. यूं तो तालाबंदी एक अच्छा जरिया है, सोशल डिस्टेंसिंग का. लेकिन कहीं पर अज्ञानता के चलते और कहीं पर मजबूरी के चलते तालाबंदी वैसी नहीं हो पा रही, जैसी होनी चाहिए या जिस तरह की तालाबंदी से हम कोरोना के कहर को धूमिल करने की उम्मीद कर सकते हैं.

दरअसल तालाबंदी को कमजोर करने में सिर्फ हमारे योजनाबद्ध षड़यंत्र ही नहीं शामिल, हमारी नासमझ और जीवन जीने के बेफिक्र तरीके भी इसमें मददगार हैं. मसलन हिंदुस्तान में मुहल्लों के किराना स्टोरों को लें. हम आम हिंदुस्तानियों के खरीद फरोख्त का जो अब तक का स्वभाव रहा है, वह न सिर्फ बहुत बेफिक्र बल्कि अनुशासनहीन भी रहा है. चूंकि इन दिनों अधिकांश हिंदुस्तानी लाॅकडाउन और कफर््यू के चलते घरों के अंदर हैं. लोग बस जरूरी चीजों की खरीदारी के लिए ही बाहर निकलते हैं, इन्हीं जरूरी चीजों में राशन, दवाईयां, दूध और सब्जियां शामिल हैं. दुनिया के दूसरे देशों में तो ये सब चीजें भी ग्राहकों के दरवाजे तक पहुंचायी जा रही हैं. लेकिन हिंदुस्तान में अभी भी जहां कर्फ्यू नहीं लगा, सिर्फ लाॅकडाउन है वहां ये तमाम चीजें लोगों को खुद दुकानों से लेने जाना पड़ रहा है.

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