कैसा विरोधाभास है. एक तरफ जहां टीवी चैनल्स पीवी सिंधु द्वारा रियो ओलिंपिक खेलों में सिल्वर मैडल जीतने पर उस का गुणगान करते नहीं थक रहे, वहीं दूसरी तरफ मेरे पड़ोस वाले घर में बेटी पैदा होने के कारण मातम छाया है. मैं सोच में पड़ गई कि कब हमारे समाज की मानसिकता बदलेगी? बदलते समय के साथ लोगों की सोच क्यों नहीं बदलती? ऐसा कौन सा कार्य है, जिसे पुरुष कर सकते हैं, स्त्रियां नहीं? हमारे इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं जब लड़कियों ने अपने मातापिता के साथसाथ पूरे देश का नाम भी रोशन किया है. बस आवश्यकता है उन्हें परिवार और समाज के सहयोग की.

सिंधु के मेरे शहर हैदराबाद की ही निवासिनी होने के कारण मुझे उस में खासी दिलचस्पी जागी. वैसे तो सायना नेहवाल, सानिया मिर्जा का भी यह निवासस्थान तथा कार्यस्थल है, लेकिन बैडमिंटन में पहली महिला खिलाड़ी सिंधु ने ओलिंपिक में सिल्वर मैडल जीत कर नया कीर्तिमान स्थापित कर के अपने देश का नाम रोशन किया है.

बचपन से ही खेल में रुचि

21 वर्षीय सिंधु ने मात्र 6 वर्ष की आयु में बैडमिंटन में रुचि लेनी शुरू कर दी थी. तब उस का रुझान पड़ोस में खेलने तक ही सीमित था. उस समय वह मारेडपल्ली, सिकंदराबाद में रहती थी. इस समय वह कोकापेट, हैदराबाद में रहती है, जहां वह पुलेला गोपीचंद बैडमिंटन ऐकैडमी में अभ्यास के लिए जाती है. सिंधु के पिता पीवी रमण और मां पी विजया वौलीबौल के खिलाड़ी थे. पिता को अर्जुन अवार्ड से भी नवाजा गया है. वे उस इंडियन वौलीबौल टीम के मैंबर थे, जिस ने 1986 में सिओल एशियन गेम्स में कांस्य पदक जीता था. उन्होंने सिंधु की ओलिंपिक की तैयारी कराने के लिए रेलवे की नौकरी से लंबी छुट्टी ली थी और मां ने तो रेलवे की नौकरी ही उस के उद्देश्य की पूर्ति के लिए छोड़ दी थी. बड़ी बहन सौम्या भी राष्ट्रीय स्तर की हैंडबौल खिलाड़ी थी, लेकिन एमबीबीएस की पढ़ाई के लिए उस ने खेल जगत से दूरी बना ली.

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