सरकार नोटबंदी के बाद लगातार कहती जा रही है कि यह परेशानी केवल कुछ दिन की है. यह ‘केवल कुछ दिन’ क्या होता है और क्या किसी भी सरकार को केवल कुछ दिन के लिए देश की सारी जनता के साथ खेलने का हुक्म देने का हक है? सिर्फ इसलिए कि मई, 2014 में एक व्यक्ति को लोक सभा चुनावों में बहुमत दे दिया गया था? 25 जून, 1975 की तरह केवल कुछ दिन अनुशासन के नाम पर आपातस्थिति घोषित करने का मौलिक हक क्या हर किसी सरकार के पास है?

सरकारों के पास बहुत कुछ कराने और करने के हक हैं क्योंकि उन के पास फौज, पुलिस और सरकारी नौकरों की एक बड़ी जमात है और हर नागरिक असल में एकदम अकेला होता है और अकेले उस के घर के किसी निष्ठुर, मनमानी करने वाले शासक से निबटने की हिम्मत नहीं होती. अकेला नागरिक तो इतना भयभीत होता है कि वह गली के गुंडों से अपनी कमसिन बेटी की रक्षा नहीं कर पाता, पड़ोसी के भूंकते कुत्तों को चुप नहीं करा सकता.

केवल कुछ दिन किसी को जेल में बंद कर देना पुलिस का बाएं हाथ का काम है जबकि देश का संविधान इस के सख्त खिलाफ है. केवल कुछ दिन के लिए बिजली, पानी काट देना आम है. केवल कुछ दिन के लिए सड़कें बंद कर के उन्हें खोद डालना या उन पर कोई धार्मिक उत्सव करा देना भी आम है, पर क्या ये सरकार के नैतिक हकों में से हैं? केवल कुछ दिन लाइनों में लग कर अपनी ही गाढ़ी कमाई के नए नोट ले लेने की कैद काटना सिर्फ इसलिए कि इस से कुछ जो आराम कर रहे हैं व कुछ अमीर कष्ट में होंगे और उन की संपत्ति धुल कर राख बन जाएगी, क्या बुद्धिमानी का काम है?

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