जिंदगियां लीलने, रोजगार छीनने, अर्थव्यवस्था को पंगु बनाने के साथ कोविड महामारी ने अब भारत को कम्युनिटी ट्रांसमिशन में जकड़ लिया है. नोवल कोरोना के फैलाव को रोकने में महामारी एक्सपटर्स की अनदेखी कर सरकार ने जो रणनीति अपनाई वह धराशाई हो गई है.

स्वास्थ्य और महामारी से जुड़े विशेषज्ञों ने कोरोना संक्रमण की  रोकथाम के सरकार के तौरतरीकों की तीखी आलोचना करते हुए कहा है कि इस स्थिति में यह संक्रमण रोका नहीं जा सकता है.

इंडियन पब्लिक हेल्थ एसोसिएशन (आईपीएचए), इंडियन एसोसिएशन औफ प्रिवैंटिव ऐंड सोशल मैडिसिन (आईएपीएसएम) और इंडियन एसोसिएशन औफ़ एपीडेमियोलौजिस्ट्स (आईएई) के विशेषज्ञों ने एक साझे बयान में सरकार की कड़ी आलोचना की है. इन्होंने कहा है, “यह उम्मीद करना अव्यावहारिक है कि इस स्थिति में कोरोना को ख़त्म किया जा सकता है क्योंकि देश के बड़े हिस्से में सामुदायिक संक्रमण अच्छी तरह स्थापित हो चुका है.”

गौरतलब है कि सरकार अब तक यह दावा करती आई है कि सामुदायिक संक्रमण अब तक शुरू नहीं हुआ है. स्वास्थ्य विभाग में संयुक्त सचिव लव अग्रवाल कई बार कह चुके हैं कि सामुदायिक संक्रमण शुरू नहीं हुआ है. जबकि, औल इंडिया इंस्टिट्यूट औफ मैडिकल साइसेंज यानी एम्स के महानिदेशक ने मशहूर पत्रकार करण थापर को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि ऐसे कई इलाक़े हैं जहां सामुदायिक संक्रमण नहीं है, लेकिन ऐसे कई दूसरे इलाक़े भी हैं जहाँ सामुदायिक संक्रमण हुआ है.

सख़्त लौकडाउन के बावजूद संक्रमण:

तीनों एसोसिएशनों के साझे बयान में कहा गया है कि 25 मार्च से 3 मई तक का लौकडाउन बहुत ही सख़्त रहा है, इस के बावजूद संक्रमण बहुत फैला है.

साझे बयान में यह भी कहा गया है कि यह लौकडाउन एक मौडल के नतीजों के आधार पर लगाया गया, लेकिन वह मौडल बहुत ही बुरा था, उस से बुरा हो नहीं सकता.

कोविड से बचाव के लिए सरकार द्वारा गठित नेशनल टास्क फोर्स यानी राष्ट्रीय कार्यबल के 16 सदस्यीय संयुक्त समूह में आईएपीएसएम के पूर्व अध्यक्ष और एम्स दिल्ली में सामुदायिक चिकित्सा केंद्र के प्रमुख डा. शशिकांत, आईपीएचए के राष्ट्रीय अध्यक्ष और सीसीएम एम्स के प्रोफैसर डा. संजय के राय, सामुदायिक चिकित्सा, आईएमएस, बीएचयू, वाराणसी के पूर्व प्रोफैसर और प्रमुख डा. डीसीएस रेड्डी, डीसीएम और एसपीएच पीजीआईएमईआर, चंडीगढ़ के पूर्व प्रोफैसर और प्रमुख डा. राजेश कुमार शामिल हैं.

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महामारीविदों से राय नहीं ली:

इन विशेषज्ञों ने यह भी कहा कि महामारी से निबटने के उपायों संबंधी निर्णय लेते समय महामारीविदों से सलाह नहीं ली गई. बयान में कहा गया है , “ भारत सरकार ने महामारीविदों से परामर्श लिया होता जिन्हें अन्य की तुलना में इस की बेहतर समझ होती है तो शायद बेहतर उपाय किए जाते.” विशेषज्ञों ने कहा, ऐसा लगता है कि मौजूदा सार्वजनिक जानकारी के आधार पर सरकार को चिकित्सकों और अकादमिक महामारी विज्ञानियों द्वारा सलाह दी गई थी. उन्होंने कहा, ‘‘नीतिनिर्माताओं ने स्पष्ट रूप से सामान्य प्रशासनिक नौकरशाहों पर भरोसा किया जबकि इस पूरी प्रक्रिया में महामारी विज्ञान, सार्वजनिक स्वास्थ्य, निवारक चिकित्सा और सामाजिक वैज्ञानिकी क्षेत्र के विशेषज्ञों की भूमिका काफी सीमित थी.”

लौकडाउन के कठोर नियमों की आलोचना:

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखे पत्र में इन विशेषज्ञों ने लौकडाउन को क्रूर बताया है और कहा है कि लौकडाउन की कठोर सख्ती, नीतियों में समन्वय की कमी की कीमत अब भारत को चुकानी पड़ रही है.

मजदूरों को मिलनी चाहिए थी घर जाने की इजाजत:

पीएम को लिखे पत्र में विशेषज्ञों ने कहा है कि यदि इस महामारी की शुरुआत में ही, जब संक्रमण की रफ्तार कम थी, मजदूरों को घर जाने की अनुमति दे दी गई होती तो मौजूदा हालत से बचा जा सकता था. शहरों से लौट रहे मजदूर अब देश के कोनेकोने में संक्रमण ले जा रहे हैं, इस से ग्रामीण और कसबाई इलाके प्रभावित होंगे जबकि स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं.

डब्लूएचओ के निर्देश के उलट भारत:

मालूम हो कि हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्लूएचओ ने अपने सदस्य देशों को निर्देश जारी किया था कि कोरोना वायरस के इलाज में हाइड्रोक्सीक्लोरोक्विन खतरनाक साबित हो सकती है. इसीलिए इस के ट्रायल बंद कर दें. लेकिन भारतीय वैज्ञानिकों ने न सिर्फ इस दवा पर शोध किया बल्कि देश के डाक्टरों से कहा है कि कोरोना वायरस इलाज में इस दवा से बचाव हो सकता है.

इंडियन काउंसिल औफ मैडिकल रिसर्च यानी आईसीएमआर ने अपने ताजा शोध  में कहा है कि हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन की दवा लेने पर कोरोना वायरस संक्रमण के खतरे में कमी देखी गई है.

यह लड़ाई, दरअसल, भारतीय दवा बनाम अंतर्राष्ट्रीय गुट है. ज्यादातर पश्चिमी देशों के वैज्ञानिक और दवा कंपनियां भारत की बेहद सस्ती दवाओं के उपचार को ले कर हमेशा नीचा दिखाने की कोशिश में रहती हैं. कोरोना वायरस का इलाज मलेरिया से बचाव के लिए बनी हाइड्रोक्सीक्लोरोक्विन से संभव है.

यह सच है कि अगर कोरोना वायरस से बचाव के लिए इस सस्ती दवा का उपयोग बढ़ जाए तो पश्चिमी देशों की दवा कंपनियों को करोड़ो रुपयों का नुकसान हो जाएगा. यही कारण है कि उन की लौबी डब्लूएचओ पर दबाव बना कर हाइड्रोक्सीक्लोरोक्विन के सभी ट्रायल बंद करना चाहती है.

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बहरहाल, अब यह देखना है कि वायरस देश में तांडव मचाने में किस हद तक खूंखार हो पाता है और वहीं हमारी सरकार उस को शिकस्त देने के लिए अब कैसी रणनीति अपनाती है. उम्मीद की जानी चाहिए कि केंद्रीय हुकूमत आने वाले दिनों में गलती दोहराएगी नहीं.

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