नई पीढ़ी किसी भी जाति की हो, अगर किशोरवय से ही स्वाभिमानी, मेहनती और ईमानदारी के माने समझ जाए तो खुद की, जाति की और देश की तरक्की में महती भूमिका निभा सकती है. इस के लिए जरूरी है कि उसे ये चीजें परिवार और समाज के ही बड़े बूढ़े सिखलाएं. इस तरह की सीख को ही आम बोलचाल की भाषा में संस्कार कहा जाता है.
भोपाल का संस्कृत विद्यालय इस का अपवाद साबित हो रहा है. इस से ज्यादा चिंता की बात यह है कि यहां संस्कृत सीख रहे किशोर ब्राह्मण दानदक्षिणा लेने के आदी बनाए जा रहे हैं. इन्हें पूर्वजों की तरह पूजापाठ, हवन, यज्ञ और मंत्रोच्चार के जरिए पैसा लेना खुलेआम सिखा कर इन के भविष्य से खिलवाड़ ही किया जा रहा है. यह विद्यालय पुरोहितों की खान है जहां बाकायदा कर्मकांड का प्रशिक्षण छात्रों को दिया जाता है.
कम उम्र के ये छात्र कतई स्वाभिमान और परिश्रम का मतलब नहीं समझते. पढ़ाई के दौरान ही तीजत्योहार प्रधान देश में ये साल भर में 12-15 हजार रुपए बैठेबिठाए महज ब्राह्मण होने की वजह से कमा लेते हैं. दूसरे किशोरों की तरह इन्हें भविष्य में कमाने, खाने और कैरियर बनाने की चिंता नहीं है, उलटे जल्द ही बडे़ होने का इंतजार है ताकि स्कूल से बाहर निकल कर समाज में फैले अंधविश्वासों को रोजगार का जरिया बड़े पैमाने पर बना सकें.
इस साल चैत्र के नवरात्र पर कोई 2 दर्जन छात्र इस शक्तिपीठ में बैठे मंत्रोच्चार करते रहे जिस के एवज में उन्हें यजमान की हैसियत के मुताबिक 1 से 5 हजार रुपए तक दक्षिणा में मिले. इन 9 दिनों में धार्मिक माहौल शबाब पर होता है. माना जाता है कि देवी की आराधना करने से सारे स्वार्थ सिद्ध होते हैं. लोग खुद व्यस्त जीवन शैली के चलते पूजापाठ विधिविधान से नहीं कर पाते इसलिए यह काम वे पुरोहितों को ठेके पर सौंप देते हैं. तयशुदा दक्षिणा ले कर ब्राह्मण यजमान के लिए मंत्रजाप करता है तो जल्दी और कई गुना ज्यादा फल मिलता है, क्योंकि भगवान भी जातिगत भेदभाव करते हुए ब्राह्मण की फरियाद पहले सुनता है.
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