40 वर्षीय डा. सुचेता बताती हैं, ‘‘मैं और मेरे पति डा. राजेंद्र धामणे पेशे से डाक्टर हैं. हम दोनों के मन में शुरुआत से ही दूसरों के लिए कुछ करने की ख्वाहिश थी. हम अकसर फ्री मैडिकल कैंप के जरीए लोगों का इलाज करते थे. बात आज से 10 साल पहले की है. डा. साहब मुझे अपनी बाइक से कालेज जहां मैं लैक्चर लेने जाती थी छोड़ने जा रहे थे. रास्ते में हमें मानसिक रूप से पीडि़त एक आदमी दिखाई पड़ा, जो कूड़ेदान के पास बैठा कुछ कर रहा था. हम उस के पास गए. वह अर्धनग्न था. उस के बाल बहुत लंबे थे, जिस्म से बदबू आ रही थी. वह वहां विष्ठा खा रहा था और नाले का पानी पी रहा था. यह देख कर कुछ पल के लिए हम दोनों सन्न रह गए. यकीन नहीं हुआ कि ऐसा भी हो सकता है. मैं ने उसे अपना टिफिन और पानी का बोतल दी. कई घंटे उसी बारे में सोचने के बाद हम ने ऐसे लोगों के लिए कुछ करने की सोची.’’
शुरुआत की अन्नपूर्णा योजना की
डा. सुचेता आगे कहती हैं, ‘‘मानसिक रूप से पीडि़त ये लोग कम से कम विष्ठा और कूड़ा न खाएं, इसलिए हम दोनों ने अन्नपूर्णा योजना की शुरुआत की, जिस के तहत मैं रोज 40-50 लोगों के लिए टिफिन बनाती थी. मैं और मेरे पति रोजाना सुबह एकसाथ बाइक पर निकलते और अहमदनगर से सटे 20 किलोमीटर के हाईवे पर घूम कर ऐसे लोगों तक खाना पहुंचाते थे. 2 साल हम ने यही किया. लेकिन एक रोज हमें उसी हाईवे पर 25-30 साल की एक युवती मिली, जो मानसिक रूप से पीडि़त और अर्धनग्न थी. उसे हम ने खाना खिलाया, लेकिन उसे अकेला छोड़ कर जाने का मन नहीं हुआ, इस डर से कि कहीं उस के साथ कुछ गलत न हो जाए.’’
स्थापित किया माउली सेवा प्रतिष्ठान
‘‘हम उस औरत को अपने साथ घर ले आए. हम ने 2010 में ‘माउली सेवा प्रतिष्ठान’ की स्थापना कर कमरे बनवाने का काम शुरू किया. इस में कई लोगों ने हमारी आर्थिक मदद भी की. जब तक काम चलता रहा, तब तक मानसिक रूप से पीडि़त 3-4 महिलाएं हमारे साथ हमारे घर में रहती थीं. आज इस संस्था में कुल 107 महिलाएं और 17 बच्चे हैं. ये बच्चे उन्हीं के हैं, इन में से कुछ महिलाएं हमें बच्चों के साथ मिली थीं, तो कुछ गर्भवती मिली थीं, जिन्होंने बच्चों को जन्म दिया. ये बच्चे उन के हैं, जिन्होंने मानसिक रूप से बीमार महिलाओं को अपनी हवस का शिकार बनाया था.
‘‘एक बार इसी तरह हमें पंढरपुर में पूरी तरह से निर्वस्त्र और 6 माह से गर्भवती स्त्री मिली थी, जिसे हम अपने साथ ले आए थे. यह किस्सा मैं इसलिए बता रही हूं ताकि लोग इस बात को समझें कि इन स्त्रियों के साथ जो अत्याचार हो रहा है उस का जिम्मेदार कौन है और इन की हिफाजत किस की जिम्मेदारी है?’’
माउली सेवा प्रतिष्ठान ऐसे करता है काम
‘‘मुझ से कई लोग पूछते हैं कि आप ऐसी औरतों को कैसे संभालती हैं? तब मेरा जवाब यही होता है कि प्यार की भाषा से बड़ी भाषा और कोई नहीं. अगर इनसान, इनसान की तरह ही व्यवहार करे तो सब कुछ मुमकिन है. हमारे यहां जब ऐसी महिलाएं आती हैं, तब वे पूरी तरह से शून्य होती हैं, उन्हें मंजन करने से ले कर नहानाधोना हम सिखाते हैं. लेकिन साल भर बाद कई औरतें खुद ही ये सब करने लगती हैं. संस्था में इन्हें सुबह 9 बजे उठाया और नहलाया जाता है फिर 10 बजे तक चायनाश्ता करा कर ट्रीटमैंट और काउंसलिंग का काम होता है.’’
कुछ ऐसा है मेरा परिवार
निजी जिंदगी के बारे में डा. सुचेता बताती हैं, ‘‘मैं, मेरे पति, मेरा बेटा, मेरे ससुरजी और 2 बेटियां यह है हमारा परिवार. मेरे ससुरजी पेशे से प्रिंसिपल रहे हैं. अब हमारे साथ भी हमारा हाथ बंटाते हैं. मेरा बेटा अभी कक्षा 12वीं में है. दरअसल, जो 2 बेटियां मेरे घर में हैं वे मेरी नहीं, उन महिलाओं की हैं जो हमें तब मिली थीं जब उन की दिमागी हालत ठीक नहीं थी. इसलिए मैं ने इन को अपने पास रख कर अपनी बेटी की तरह पाला. अब एक लड़की कक्षा 7वीं में दूसरी कक्षा 8वीं में है.
यो होती है मेरी दिनचर्या शुरू में
मैं सुबह उठ कर पहले अपने घर का सारा जरूरी काम निबटाती हूं, उस के बाद 8 बजे माउली संस्था की ओर निकल जाती हूं. वहां लोगों को खाना खिलाने के बाद दोपहर 3 बजे तक घर आती हूं. उस के बाद अपने बेटे पर
ध्यान देती हूं, चूंकि वह अब 12वीं कक्षा में है, इसलिए उसे मैं खुद पढ़ाती हूं. हमारी तरह हमारा बेटा भी डाक्टर बनाना चाहता है. हमें भी उस से काफी उम्मीदें हैं ताकि हम उस के साथ और भी अच्छे और नए प्रोजैक्ट्स पर काम कर सकें.’’
पति के संग होती हैं बस पल भर बातें
डा. सुचेता ने मुसकराते हुए बताती हैं, ‘‘शादी के शुरुआती दिनों में भले हम ने बाइक से सैर की हो, लेकिन अब वक्त नहीं मिलता है. इच्छा होती है एकसाथ समय बिताने की, लेकिन काम की वजह से समय नहीं मिल पाता. हमारे बीच खास और लंबी बातचीत भी तब होती है जब हम एकसाथ किराने का सामान, पीडि़तों के लिए दवाएं और सब्जियां लेने जाते हैं. उसी दौरान हम एकदूसरे के साथ दोनों से जुड़ी बातें शेयर कर पाते हैं.