रूस और अमेरिका जैसी महाशक्तियों ने कभी नहीं सोचा होगा कि एक दिन उन्हें तकनीक के मामले में भारतचीन जैसे पूरब के देशों से तगड़ी चुनौती मिलेगी. चुनौती भी ऐसी कि वे इस संबंध में अपने भविष्य के बारे में सोचने को मजबूर हो जाएं.
इधर, जब भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने 15 फरवरी, 2017 को अपने प्रक्षेपणयान पीएसएलवी-सी37 से भारतीय कार्टोसैट-2 सीरीज के उपग्रह के अलावा स्वयं के 2 अन्य, अमेरिका के 96, इजरायल, कजाखस्तान, नीदरलैंड्स, स्विट्जरलैंड और संयुक्त अरब अमीरात का एकएक यानी कुल मिला कर 104 नैनोसैटेलाइट अंतरिक्ष में छोड़े, तो यह खुद उस के लिए ही नहीं, पूरी दुनिया के संदर्भ में भी एक नया रिकौर्ड था. एक मुख्य, 2 छोटे और 101 नन्हे (नैनो) सैटेलाइटों की यह एक किस्म की बरात थी, जिस से जलने वालों की दुनिया में कमी नहीं है. निश्चय ही इसरो की सफलता देश का सिर गर्व से ऊंचा करती है पर यह मामला अब बाजार का ज्यादा है, जिस में सेंध नहीं लगने देने का इंतजाम अगर हम ने कर लिया, तो जमीन पर रोजगार से ले कर शोध के आसमान तक हमारा वर्चस्व कायम होने में देर नहीं लगेगी.
चीन, रूस व अमेरिका को चुनौती
एक वक्त था, जब हमारे देश को अपने उपग्रह अंतरिक्ष में स्थापित करने के लिए सोबियत रौकेटों और निजी कंपनी ‘आर्यनस्पेस’ पर निर्भर रहना पड़ता था. इनसैट श्रेणी के उपग्रह भारत ने इसी तरह भारी खर्च कर के प्रक्षेपित किए हैं और इस में लाखों डौलर की रकम खर्च की है, पर आज यह नजारा पूरी तरह बदल गया है, आज इसरो खुद दुनिया भर (करीब 21 देशों) के उपग्रह अपने सब से भरोसेमंद रौकेटों से अंतरिक्ष में भेज रहा है और सब से महत्त्वपूर्ण बात यह है कि आर्यनस्पेस अब इसरो की व्यापारिक सहयोगी कंपनी बन गई है.