दिल्ली को हाई राइज सिटी बनाने की कवायद शुरू होने जा रही है. दिल्लीवासी कैसे रहें, यह ठेका वैसे दिल्ली सरकार, डीडीए (दिल्ली डैवलपमैंट अथौरिटी), केंद्र सरकार और नगर निगमों के पास है. आम नागरिक तो बेचारा है. वह इन के कार्यालयों के आगे भीख मांगता रहता है और जब कुछ मिल जाता है तो अपनी जमीन पर, अपने पैसे से अपनी आधीअधूरी पसंद वाला मकान बना पाता है. सरकारी विभागों का कहना है कि अगर दिल्लीवासियों को छूट दे दी जाए तो वे दिल्ली को तहसनहस कर देंगे. मानो आजकल दिल्ली बड़ा सुंदर, संगठित, करीने से बसा साफसुथरा शहर है. दिल्ली में रहने वाला हर जना जानता है कि दिल्ली शहर कूड़े के बेतरतीब बिखरे कई नगरों, उपनगरों, बस्तियों, महल्लों, स्लमों का शहर है, जिसे एकदूसरे से सड़कें जोड़ती हैं, जो ट्रैफिक जाम में फंसी रहती हैं. दिल्ली वाले खुश हैं तो सिर्फ इसलिए कि दूसरे शहर और भी ज्यादा बेतरतीब, गंदे, बिखरे हैं.

अब दिल्ली शहर में ऊंची इमारतों को बनाने की इजाजत दी जाने वाली है. फिलहाल यह छूट बड़े प्लाटों पर होगी जो मैट्रो के निकट हैं. भेदभाव क्यों किया जा रहा है यह अस्पष्ट है, क्योंकि अगर कुछ जगह ज्यादा बनाने की इजाजत दी जा रही है तो सभी जगह दी जानी चाहिए. यह इजाजत बरसों पहले मिल जानी चाहिए थी. दिल्ली में रहने वाले अब सिर पर छत चाहते हैं चाहे माहौल गंदा हो, सीवर भरा हो और कूड़े के ढेर से गुजर कर जाना पड़ता हो. हर घर वाली को दीवारों की सुरक्षा चाहिए, सफाई नहीं. सफाई की तो तब सोचेंगे जब जेब में 4 पैसे होंगे और मकान ढंग के होंगे. दिल्ली में दाम इस कदर बढ़ गए हैं कि अच्छेखासे कमाने वाले भी आज सड़कों पर रहने को मजबूर हैं. अगर बरसों पहले ऊंचे मकान बनाने की इजाजत दे दी जाती तो चाहे गंदे मुंबईनुमा टौवर दिखते पर दाम तो ठीक होते. अब जो छूट दी जा रही है, वह दिल्ली का पेट भरने के लिए काफी नहीं है. जरूरत तो इस बात की है कि ‘अपनी जमीन पर चाहे जैसे रहो’ की नीति अपनाई जाए. सरकार का काम यह हो कि वह सार्वजनिक जमीन पर एक ईंट न रखने दे, एक झुग्गी न बनने दे, एक दुकान न चलने दे, एक पटरी को घेरने न दे. आम आदमी के लिए घर के बाहर पूरी तरह बंधन हो, घर में वह पूरी तरह आजाद हो. वह वहां कितने कमरे बनवाए, क्या व्यापार करे, किसे किराए पर दे यह उस की अपनी मरजी पर हो. लेकिन बाहर वह न गाड़ी खड़ी करे, न पटरी घेरे, न दुकान एक इंच बढ़ाए. सरकार की तमाम रोकटोक के बावजूद अपनी जगह पर तो दिलेर लोग मनमरजी तो करते ही हैं पर साथ ही सरकार के निकम्मेपन के कारण पब्लिक स्पेस और पब्लिक लैंड पर कब्जा भी कर लेते हैं. क्या सरकारों के पास जीवन सुखी बनाने का फौर्मूला है?

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