चूहे ऐसे सामाजिक जीव हैं जिन का सैंस औफ ह्यूमर काफी अच्छा होता है, खासतौर पर तब जब वे अपने साथियों के साथ मस्ती कर रहे होते हैं. इन के अंदर दया की भावना भी होती है. यदि 2 चूहों में से एक को कोई आघात लगा हो और ऐसे में दूसरे को खाना परोसा जाए तो वह अपने साथी की हालत को देखते हुए भूखा रहना पसंद करेगा. व्यवहार में चूहे काफी हद तक इनसानों की तरह होते हैं, फिर भी शारीरिक तौर पर चूहों और इनसानों में कोई समानता नहीं होती. यहां तक कि चूहों पर किए गए शोध भी इनसानों पर व्यावहारिक सिद्ध नहीं होते.
कितनी अजीब बात है कि एक तरफ जहां सारा संसार करुणामयी बनने की बात कर रहा है, वहीं दूसरी तरफ कोई भी उन 1 करोड़ चूहों के बारे में बात तक नहीं कर रहा, जो बेनतीजा शोधों के चलते वैज्ञानिकों द्वारा निर्ममता से मौत के घाट उतार दिए जाते हैं.
शोधों का सच
वैज्ञानिक अनुसंधानों में 60% से ज्यादा शोध ऐसे वेतनभोगी शोधकर्ताओं के द्वारा किए जाते हैं, जो सिर्फ अपना मासिक वेतन पाने के लिए बेवजह के शोध करते रहते हैं. लगभग 30% शोधों में सिर्फ दोहराव होता है.
भारत किसी भी तरह का मैडिकल ऐक्सपैरीमैंट, जानवरों पर किए गए शोध स्वीकार नहीं करता. यहां तक कि इस के लिए और्गनाइजेशन फौर इकोनौमिक कोऔपरेशन ऐंड डैवलपमैंट (ओइसीडी) के साथ एक इंटरनैशनल प्रोटोकाल भी साइन किया गया है. इस के बावजूद हमारे कुछ वैज्ञानिक अंतर्राष्ट्रीय शोधों का बेवजह दोहराव करते रहते हैं.
शोधों का दोहराव करने वाले वैज्ञानिकों को इस तरह व्यस्त रहने के लिए कुछ करने का मौका मिल जाता है, क्योंकि शायद उन की प्रतिभा इतनी ही है. ऐसे 5% शोध मैडिकल की पढ़ाई करने वाले छात्रों के द्वारा परीक्षा में नंबर पाने के लिए भी किए जाते हैं. सिर्फ 5% शोध ही किसी गंभीर कारण से किए जाते हैं और इन में से भी 0.1% शोधों का कोई नतीजा निकलता है.