‘‘शैलजा, कल तुम औफिस से छुट्टी ले लेना. नवदुर्गा के पहले दिन हमारे घर पड़वा का कीर्तन है. माता रानी के चरणों में मन लगाएंगे,’’ सास के कहने पर शैलजा को हामी भरनी पड़ी.

शैलजा की नईनई शादी हुई थी. ससुराल का बेहद धार्मिक वातावरण उसे शादी में हुए पूजापाठ से ही समझ आ गया था. खैर, हर लड़की को अपनी ससुराल के अनुसार ढलना होता है, सोच कर शैलजा भी अपनी ससुराल के हर रीतिरिवाज, तीजत्योहार मनाने लगी थी.

महानगर में पलीबढ़ी, आज के जमाने की लड़की होते हुए भी एक अच्छी बहू बनने के लिए उस ने अपनी तार्किक सोच को मन ही मन दबा लिया.

नि:श्वासे न हि विश्वास: कदा रुद्धो भविष्यति।

कीर्तनीयमतो बाल्याद्धरेर्नामैव केवलम्॥

कैवल्याष्टकम्- 4 शात्रानुसार सांसों का कोई भरोसा नहीं, इसलिए बचपन से ही भजनकीर्तन में मन लगाना चाहिए. इसी सोच का फायदा उठाते हैं आज के भ्रष्ट गुरू जो भेड़ की खाल ओढ़े भेडि़ए हैं. अब सोचने की बात यह है कि अगर बचपन से ही भजनकीर्तन में समय बिताना शुरू कर दिया और इष्टदेव या गुरू का जाप करते रहे तो पढ़ने का समय कब मिलेगा, ऊपर से कैरियर का हश्र होगा सो अलग. ऊपर से आसाराम या रामरहीम जैसे गुरू मिल गए तो परिणाम क्या होगा, सर्वविदित है.

कीर्तन के पीछे एक ही मानसिकता बेची जाती है-पुण्य कमाना है तो कीर्तनसत्संग करना होगा. जो भगवान का नाम नहीं जपेगा या फिर दूसरे को ऐसा करने से रोकेगा अथवा हतोत्साहित करेगा वह पाप का भागीदार बनेगा.

कीर्तन करने के 2 मोटे फायदे हैं- अपने धनवैभव का शो औफ करना, साथ ही समाज में एक सुछवि बड़ी आसानी से स्थापित करना.

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