समय पर खाना न मिलने पर औरतों को पति या सासससुर की डांट तो अकसर खानी ही पड़ती है, कभीकभी तो मारपीट तक भी हो जाती है. औरतों को गुलाम समझने वाली मानसिकता समाज में बहुत गहरी बैठी हुई है और हर पीढ़ी उस को और ज्यादा गहरा रंग देती है. शादी के बाद घर की सुरक्षा और बच्चों का प्रेम औरतों को इस कदर बांध देता है कि वे चाह कर भी पति या सास से विद्रोह नहीं कर पातीं. ऊपर से हमारा समाज युवा बहुओं पर हर तरह के जुल्म करने को तैयार रहता है. उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जिले में 2 औरतों को एक पंचायत ने 20-20 छडि़यों से पिटाई का हुक्म दे डाला, क्योंकि उन्होंने सास को समय पर खाना नहीं दिया था. पंचायतों को इस तरह के फैसले करने का हक किसी ने दिया हो या नहीं, 10-20 बूढ़े लोग मिल कर पंचायत बना कर घरेलू मामलों में दखल देना अपना हक समझते हैं.

औरतों का काम चूल्हाचक्की ही नहीं है पर इस का अर्थ यह भी नहीं है कि औरतों को इस काम से आसानी से छुटकारा मिल सकता है. घर में किसी को तो खाना बनाना ही होगा और अगर पति घर से बाहर जा कर कमाएगा तो पत्नी को खाना बनाना ही होगा. इस में ज्यादा विवाद, अनमने ढंग से खाना बनाना, ठंडा, खराब खाना देना बेवकूफी है. घर वाले सुखी रहें, शांत रहें यह हर घर में हरेक की जिम्मेदारी है पर घर का मुखिया पत्नी की अहम जिम्मेदारी है और इस की चाबी वह खाना ही है जिस के लिए पति ही नहीं, बच्चों और सासससुर को भी पत्नी का मुंह ताकना होता है. पति को रसोई में हाथ बंटाने की इजाजत देना असल में अपने राज में दखल देने को निमंत्रण देना है, जो घातक साबित होगा.

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