मध्य प्रदेश के कूनो राष्ट्रीय उद्यान में लगातार हो रही चीतों की मौत ने सरकार और वनकर्मी की चिंता बढ़ा दी है. अब तक कुल नौ चीतों की मौत हो चुकी है. कुछ विशेषज्ञ इन मौतों का कारण चीतों को लगाए घटिया रेडियो कॉलर को मानते हैं. ये कॉलर टाइगर के थे मगर चीतों को लगा दिए गए, यही वजह है कि अब सभी बाकी बचे चीते के रेडियों कॉलर हटा दिए गए है और उनकी पूरी निगरानी की जा रही है.

असल में कूनो में नर चीते सूरज के रेडियो कॉलर को हटाने पर उसके गर्दन के नीचे संक्रमण पाया गया था. गहरे घाव में कीड़े भरे हुए थे. सूरज 8वां चीता था  जिसकी कूनों में मौत हुई. दावा है कि इसके पहले तेजस चीते में भी गर्दन में ऐसा ही इन्फेक्शन मिला था. ये इन्फेक्शन फ़ैल रहा है. कॉलर आईडी के कारण ऐसा हो रहा है, ऐसा विशेषज्ञ मान रहे है. जबकि 9वां मादा चीता धात्री भी इन्फेक्शन की वजह से ही मृत पाई गई.

असल में मध्यप्रदेश के कूनो राष्ट्रीय उद्यान में नामीबिया से आठ और दक्षिण अफ्रीका से 12 इस प्रकार कुल 20 चीते ‘प्रोजेक्ट चीता’ लाए गए. 29 मार्च को कूनो राष्ट्रीय उद्यान में छोड़ी गई तीन वर्ष की नामीबियाई मादा चीता ‘सियाया’ ने चार चीता शावकों को जन्म दिया. वर्तमान में 10 चीते खुले जंगल में विचरण कर रहे हैं और पांच चीतों को बाड़ों में रखा गया है. सभी चीतों की 24 घंटे मॉनीटरिंग की जा रही है. इसके अलावा कूनो वन्य-प्राणी चिकित्सक टीम और नामीबिया और दक्षिण अफ्रीका के विशेषज्ञों द्वारा स्वास्थ्य परीक्षण भी किया जा रहा है.

इसके बावजूद कूनो नेशनल पार्क में अब तक छह चीते और तीन शावकों की जान जा चुकी हैं. इन घटनाओं के बीच कई सवाल भी खड़े हुए. आखिर कूनो नेशनल पार्क में चीतों की लगातार हो रही मौत की वजह क्या है?

चीता न लाने की वजह

असल में चीता (Cheetah). दुनिया का सबसे तेज भागने वाला जानवर है. अधिकतम गति 120 किलोमीटर प्रतिघंटा के हिसाब से भाग सकता है. वर्ष 1948 में छत्तीसगढ़ के कोरिया जिले के खुले साल जंगल में तीन चीतों का शिकार किया गया. साल 1952 में चीतों को विलुप्त घोषित कर दिया गया. 70 साल से चीतें भारत में नहीं थे, फिर अचानक चीतों को लाने की जरुरत क्यों पड़ी? इसे पहले लाया क्यों नहीं गया? आइये जानते है इसका इतिहास, वर्ष 1970 के दशक में ईरान के शाहने कहा था कि वे ईरान से चीतें देने के लिए तैयार है, लेकिन बदले में उन्हें एशियाटिक लायन चाहिए.

लगभग उसी दौरान भारत सरकार ने वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट बनाया, जिसे साल 1972 में लागू किया गया. इसके अनुसार देश में किसी भी जगह किसी भी जंगली जीव का शिकार करना प्रतिबंधित है. जब तक इन्हें मारने की कोई वैज्ञानिक वजह न हो या फिर वो इंसानों के लिए किसी प्रकार का खतरा न हो. इसके बाद देश में जंगली जीवों के लिए संरक्षित इलाके बनाए गए, लेकिन किसी ने चीतों के बारें में नहीं सोचा. असल में इसकी आवाज साल 2009 में उठी.

जब वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया (WTI) ने राजस्थान के गजनेर में दो दिन का इंटरनेशनल वर्कशॉप रखा. सितंबर में हुए इस दो दिवसीय आयोजन में यह मांग की गई कि भारत में चीतों को लाया जा सकता है. दुनिया भर के एक्सपर्ट इस कार्यक्रम में शामिल थे. केंद्र सरकार के मंत्री और संबंधित विभाग के अधिकारियों ने भी इसमें भाग लिया था.

फ़ूड चैन में रखता है संतुलन

दरअसल चीतों के विलुप्त होने के बाद भारतीय ग्रासलैंड की इकोलॉजी खराब हो चुकी है, उसे ठीक करना जरुरी था, चीता अम्ब्रेला प्रजाति का जीव है, जो बहुत ही सेंसेटिव होता है, यानि फ़ूड चैन में सबसे ऊपर के जीव, जो फ़ूड चेन की संतुलन को बनाए रखता है. कूनो नेशनल पार्क को इसलिए चुना गया था, क्योंकि यहाँ चीतों के लिए पर्याप्त मात्रा में भोजन उपलब्ध है और चीता की सबसे पसंदीदा भोजन ब्लैक बग्स यानि काला हिरन है. इसके अलावा चीता की पसंदीदा जगह के बारें में बात करें, तो उन्हें ऊँचे घास वाले मैदान पसंद होते है, जहाँ वातावरण में अधिक उमस न हों.

कुल पांच राज्यों में चीतों के लायक वातावरण पाए गए, जहाँ पर चीतों को रखा जा सकता है. उत्तर प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, छत्तीसगढ और मध्यप्रदेश के सभी स्थानों को एक्सपर्ट ने जाँच किया और पाया कि इन सबमें मध्यप्रदेश का वातावरण सबसे अधिक उपयुक्त है, लेकिन फिर इसे होल्ड पर रखा गया और एक्सपर्ट ने पाया कि ईरान और अफ्रीका के चीतों की जेनेटिक्स एक जैसी है, ऐसे में सभी ने अफ्रीका से चीतों को लाया जाना उचित समझा और 8 चीते नामीबिया से और बाकी 12 साउथ अफ्रीका से लाए गए.

सही वातावरण जरुरी

इस बारें में महाराष्ट्र के रिटायर्ड चीफ वाइल्ड लाइफ वार्डन विश्वजीत मजुमदार कहते है कि टाइगर, पैंथर, लेपर्ड, लायन आदि सभी बिग कैट के इकोलॉजी, फिजियोलोजी, टेरिटोरी जरूरतें अलग -अलग होती है, जो वातावरण टाइगर के लिए सही है वह पैंथर के लिए सही नहीं हो सकता. चीता को पुनर्वास करना पूरे विश्व में बहुत कठिन होता है. चीता की ब्रीडिंग सबसे अधिक मुश्किल होती है. चीता जेनिटिकली दो तरह के होते है. अफ्रीकन चीता भी जेनिटकली एशियन चीता से अलग होते है.

इंडिया में एशियन वाइल्ड चीता मरने की वजह कई है, उनके शिकार करने के तरीके भी बहुत स्पेशल होते है, उन्हें काले हिरन बहुत पसंद होते है, लेकिन काले हिरण की संख्या में लगातार कमी होने की वजह से चीता की नैचुरल फ़ूड में कमी आने लगी, जिससे उन्हें कम पोषक तत्व मिलने लगे. वर्ष 1960 में जब अंतिम चीता का शिकार हुआ, तब हंटिंग के विरुद्ध कानून नहीं थे, जिससे शिकार होते रहे. अब कानून की वजह से वह बंद हो गए.

असल में पहले इंडिया में एशियाटिक चीता हुआ करते थे. वाइल्ड एशियाटिक चीता अभी केवल ईरान में है. सरकार उन्हें इंडिया लाना चाहती थी, लेकिन वे इसके बदले एशियाटिक लायन मांग रहे थे , इसलिए ये डील नहीं हो पाई और बातें होल्ड पर चली गई. ईरान की तरह भारत में भी गुजरात के गिर फारेस्ट में ही केवल एशियाटिक लायन है. भारत ने उसे देने से मना कर दिया थ. ईरान के मना करने की वजह से सभी चीते अफ्रीका से लाये गए.

इन्फेक्शन के अतिसंवेदनशील जानवर

जानकारों की माने तो पहले कई बार एशियाटिक लायन को मध्यप्रदेश के कुनो फारेस्ट में भी लाने का प्रावधान रहा, ताकि कूनों में उनकी संख्या बढे और कूनों एशियाटिक लायन का दूसरा होम बन जाय, क्योंकि ये सभी बिग कैट्स  वायरल इन्फेक्शन के अतिसंवेदनशील होते है. ये अधिकतर वायरल इन्फेक्शन आसपास के जानवरों से प्राप्त करते है, क्योंकि जंगलों के पास रहने वालों की आबादी अधिकतर पशुपालन करती है.

उनके जानवर इधर-उधर चरते रहते है, उन्हें जंगल के शेर से बचाना आसान नहीं होता, ऐसे चरते हुए जानवरों को शेर अधिकतर शिकार करते है, उन्हें खाने पर शेर भी उस जानवर के इन्फेक्शन को कैरी कर लेते है. इसका उदाहण साउथ अफ्रीका के क्रूगर नेशनल पार्क से लिया जा सकता है. वहां लायन बेस्ड टूरिज्म नंबर वन है. वहां के शेरों के घटने की वजह इन्फेक्शन ही रही, जो उन्हें डोमेस्टिक कैटल से मिलता था, क्योंकि वहां के पशुपालक अपने जानवरों को चरने के लिए छोड़ देते थे और इन इन्फेक्शन वाले जानवरों का शिकार लायन करते थे, जिससे उनमे भी इन्फेक्शन आ जाता था.

इसे देखते हुए वहां की सरकार ने वन मिलियन किलोमीटर के जंगल के दायरे को फेंसिंग किया और सारें ग्रामवासी हटाये गए. इस तरह की समस्या किसी भी प्रकार की इन्फेक्शन वाली बीमारी बिग कैट्स या शेरों में आने पर उनकी पूरी जनसंख्या ख़त्म हो सकती है. इसलिए ऐसे जानवरों के लिए सेकंड होम बनाया जाना चाहिए, ताकि एक जगह इन्फेक्शन होने पर उनकी प्रजाति को सेकंड होम में सुरक्षित रखा जाय, लेकिन तत्कालीन गुजरात के मुख्यमंत्री ने ऐसा करने से मना किया. अभी केंद्र सरकार चीतों को लाई है और उन्हें कुनो फ़ॉरेस्ट में रखने का मन बनाया है, ताकि पर्यटन के साथ-साथ उनके काम को भी सराहा जाय. यही कड़वी सच्चाई है, लेकिन लगातार चीतों की मृत्यु ने सबको सोचने पर मजबूर किया है.

जेनेटिक वेरिएशन में सबसे नीचे

इसके आगे विश्वजीत कहते है कि चीता खासकर बहुत कम बच्चे को जन्म देती है. जिसमे बहुत कम बच्चे एडल्ट हो पाते है, क्योंकि वे बचपन में ही मर जाते है, या मेल चीता उन्हें मार डालते  है. इसके अलावा चीता जेनेटिक वेरिएशन में सबसे नीचे आता है, वे अपने ही समूह में ब्रीड करते है. वे अफ्रीका के नामीबिया, जोहेंसबर्ग आदि सभी जगहों पर संगीन जेनेटिक डाइवर्सिटी यानि बोटलनेक के अंदर आते है. पूरे विश्व में इनकी पूरी जनसंख्या केवल 2 या 3 चीतों पर टिकी हुई है.

जिसमे 1 पुरुष चीता दो या तीन फिमेल चीता के साथ सम्भोग करता है, उससे अलग वह किसी भी जगह के मादा चीते साथ सम्भोग नहीं करता, यही वजह है कि उनकी जनसँख्या किसी भी बिमारी के लिए अति संवेदनशील होते है, क्योंकि उनकी जेनेटिक गुण स्ट्रोंग नहीं होती. अफ्रीका के चीता किसी भी बीमारी के बहुत अधिक संवेदनशील है, लेकिन उनकी जनसंक्या वहां अधिक होने की वजह से उसपर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता.

कम रोगप्रतिरोधक क्षमता

फारेस्ट वार्डन का आगे कहना है कि चीतों को जब भारत लाया गया, तो यहाँ की जलवायु तक़रीबन एक जैसी है और फारेस्ट भी उनके अनुसार होने की वजह से कुनो में लाया गया, लेकिन ऐसा देखा गया है कि, ऐसे बीमारी के संवेदनशील चीतों को यहाँ लाकर बचाया जाना मुश्किल हो रहा है, क्योंकि चीते ने यहाँ जन्म नहीं लिया है, उनकी रोगप्रतिरोधक क्षमता भारत के अनुसार विकसित नहीं हुई है और इसे विकसित होने में भी सालों लगेंगे और तकरीबन 10 से 15 साल बाद ही ये काम सफल हो सकेगा, इससे पहले होना संभव नहीं.

इसके अलावा सबसे जरुरी है जू में रखे जानवरों और जंगलों में रहने वालें जानवरों के बीच अंतर को समझना. चीता ने अगर कुनो में शावकों को जन्म दिया है तो इसकी वजह बहुत अधिक अफ्रीकन और इंडियन एक्सपर्ट के देखभाल का नतीजा है. इस बारें में बहुत अधिक टिप्पणी करना जल्दबाजी होगी. उदहारण को लें तो वाइल्ड लाइफ में टाइगर की अगर बात करें तो 3 शावक में केवल एक शावक बहुत मुश्किल से बच पाता है.

मादा टाइगर अपने बच्चों को दूसरे जंगली जानवरों और नर बाघ से बचाती है, क्योंकि नर टाइगर हमेशा शावकों को मार डालता है, ताकि मादा बाघ फिर से सम्भोग के लायक हो जाय. इसलिए 90 प्रतिशत अपना समय मादा टाइगर अपने बच्चों को सुरक्षित रखने में बीता देती है. वाइल्ड एनिमल वर्ल्ड में ये सबसे बड़ी समस्या है, जब उनके बच्चे एडल्ट नहीं हो पाते.

एक शावक को एडल्ट होने में 4 से 5 साल लगते है. चीता लाने के पहले वैज्ञानिकों ने काफी छानबीन की है और उपयुक्त माहौल उन्हें देने की कोशिश भी की गयी है. चीता की देखरेख में आज पूरा जू कमिशन काम कर रहा है, जबकि वाइल्ड कमीशन में काम करना जू कमीशन बिल्कुल अलग होता है. इसलिए उन्हें चीता के बारें में अधिक जानकारी होना जरुरी है. रिस्क फैक्टर ये भी है कि आगे आने वाली किसी  सरकार को भी इस प्रोजेक्ट पर ध्यान देने और जिम्मेदारी लेने की जरुरत है.

रिहैबिलिटेशन करना नहीं आसान

इसके आगे वे कहते है कि भारत में जानवरों का रिहैबिलिटेशन बहुत कम किया जाता है, अगर कही पर जानवर आसपास के लोगों को अटैक कर रह हो, तो उसे उठाकर दूसरी जगह भेज दिया जाता है, लेकिन एक सफल रिहैबिलिटेशन दुधवा राष्ट्रीय उद्यान में किया गया था, क्योंकि दुधवा राष्ट्रीय उद्यान कभी गैंडो (RHINOCEROS) का होम टाउन हुआ करता था, लेकिन अचानक सभी राइनो के गायब होने पर आसाम के काजीरंगा नेशनल पार्क से उन्हें लाकर दुधवा नेशनल पार्क में छोड़ा गया और सभी राइनो वहां पर सरवाईव कर गए, क्योंकि दुधवा के जंगल भी मार्शी और गीले है, जो असम के काजीरंगा नेशनल पार्क से मेल खाते है.

किसी भी जानवर को पुनर्वास कराने से पहले उसकी पूरी छानबीन करना पड़ता है, जिसमे वहां के वातावरण जानवर को सूट करें और उसे रहने में किसी प्रकार की असुविधा न हो. इसमे उनके आहार का सबसे अधिक ध्यान रखना पड़ता है, ताकि वे स्वस्थ रहे.

इसमें एक पूरी टीम होती है, जिसमे वेटेरनरी डॉक्टर, लोकल वैज्ञानिक, आब्जर्वर आदि होते है, जो उनके घूमने फिरने और उनके स्वास्थ्य और हाँव-भाव को मोनिटर करते है. कुनो में भी यही किया जा रहा है, जिसमे वाइल्ड लाइफ मैनेजर का सबसे अधिक भागीदारी होती है. इसके लिए रेडियो कॉलर लगाया जाता है, जिसपर विवाद चल रहा है, लेकिन चीतों को सेटल होने में अभी काफी समय लगेगा, इस बारें में अभी बहुत कुछ कह पाना जल्दबाजी होगी.

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