न्यायालयों के निर्णय कई बार इस तरह तकनीकी हो जाते हैं कि व्यावहारिकता और मानवीय संबंधों की पहचान खो बैठते हैं. मुंबई की एक पारिवारिक अदालत ने एक पति की तलाक की प्रार्थना मंजूर कर ली, क्योंकि उस की पत्नी को पार्टियों का शौक था और इस से पति को मानसिक यातना पहुंचती थी. पहली अदालत ने लड़तेझगड़ते पतिपत्नी को छुटकारा दिला कर अच्छा किया था पर पत्नी तो पति को परेशान करने पर उतारू थी. अत: उस ने बड़ी पारिवारिक अदालत में अपील की और उस अदालत ने कहा कि निचली अदालत का फैसला गलत है और वे दोनों पतिपत्नी ही हैं. अब पति उच्च न्यायालय गया. 1999 में विवाद शुरू हुआ. 2008 तक विवाद बढ़ गया. 2015 में उच्च न्यायालय ने फैसला किया कि पहली अदालत का फैसला गलत था. उस ने कहा कि यदाकदा पार्टियों में जाने को मानसिक यातना नहीं कहा जा सकता. दोनों का वैवाहिक रिश्ता कायम है. एकदूसरे से झगड़ते, अदालतों के चक्कर लगाते जोड़े को जबरन साथ रखने का यह कैसा फैसला, कैसा कानून?

पत्नी आखिर इस तरह के पति को छोड़ना क्यों नहीं चाहती जो उस के साथ नहीं रहना चाहता, कारण चाहे जो भी हो? सरकार, समाज, कानून, अदालत पति और पत्नी को साथ रहने को मजबूर नहीं कर सकते. इस साथ रहने को पत्नी की सुरक्षा भी नहीं माना जा सकता. ज्यादातर ऐसे मामलों में पतिपत्नी रहते तो अलग ही हैं पर कानून उन्हें पतिपत्नी मानता रहता है. यह जबरदस्ती आखिर किस काम की है? जहां बच्चे हों वहां उन्हें एक छत देने के लिए पतिपत्नी साथ रहें, यह आदर्श व्यवस्था हो सकती है. पर जब बच्चों के सामने पतिपत्नी झगड़ रहे हों, वकीलों के चक्कर काट रहे हों, अदालतों के गलियारों में मुंह फुलाए घूम रहे हों, वहां इस साथ का क्या फायदा?

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