त्रिखा का बेटा सौरभ कानपुर के मेडिकल कौलेज में मेडिकल की पढ़ाई कर रहा था. गांव के लोग त्रिखा के बेटे की वजह से उसी अस्पताल में इलाज के लिए जाते थे. वो अपने गांव का पहला डाक्टर जो बनने  जा रहा था. पड़ोस के शर्मा जी की तबियत बिगड़ी तो सौरभ के मेडिकल कौलेज में इलाज कराने पहुंच गए, शर्मा जी कि बिगड़ी हालत तो सुधर गयी पर, पर जब वहां से लौटे तो सारे गांव  में ढिढोरा पीट दिया कि सौरभ जो अपने गुप्ता जी की बेटी के साथ शहर में पति पत्नी की तरह एक ही घर में रहते हैं.

जितने मुंह उतनी बातें, सुगंधा के मां बाप नहीं थे, भाइयों ने सोचा बला टली. त्रिखा के पति को जमाने के साथ चलना आता था क्योंकि वो शहर  में थे, पर त्रिखा हमेशा कस्बे में रही. उसकी सोच कस्बाई थी. शर्मा जी ने जैसे ही गुप्ता जी की लड़की का नाम लिया, पहले तो उसे विश्वास न हुआ क्योंकि वो तो वकालत पढ़ने गयी थी, उसके मन में विचार आया कि जरूर उनके मन में कोई गलत फहमी हुई होगी. वो दोनों तो बचपन से अच्छे दोस्त थे शायद इसलिए सौरभ के घर आती होगी, मन को समझाने की लाख कोशिश की पर मन में उठते सवालों की उथल पथल को न संभाल पायी.

अगली बस पकड़ कर बेटे के पास पहुंच गयी, चिंता और घबराहट में बीपी काफी बढ़ गया था. जल्दी जल्दी सीढ़ियां चढ़ कर बेटे के पास पहुंचना चाह रही थी कि अचानक पैर फिसला और सीढ़ियों से नीचे आ गिरी. गिरने की आवाज सुन सौरभ और सुगंधा दोनों रूम से बाहर आ गए. मां को इस तरह अचानक देख सौरभ घबरा गया. दोनों को साथ देख कर मां का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया. बेटा बोला पहले आप ठीक हो जाओ फिर आराम से बैठ कर बात कर लेना और तुरंत दोनों उन्हें डौक्टर के पास ले गए, पता चला दायें पैर में फ्रैक्चर हो गया है. न चाहते हुए भी उसे बेटे के घर रुकना पड़ा.

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