सामने दीवार पर टंगी घड़ी शाम के 7 बजा रही थी. पूरे घर मे बिल्कुल अंधेरा पसरा हुआ था किन्तु मेरे शरीर मे इतनी ताकत भी नहीं थी कि उठकर लाइट जला सकूं. सुजाता-उसकी बेटी, मैं और मेरी बेटी, इन्ही चारों के बीच अनवरत चलता हुआ मेरा अंतर्द्वंद्व.
आज दोपहर, मैं अपनी सहेली सुजाता के घर जाकर उसको बहुत अच्छी तरह समझा तो आई थी -" कि कोई बात नहीं सुजाता, अगर आज बेटी किसी के साथ रिलेशनशिप में रह रही है तो उसे स्वीकार करना ही हमारे हित में है. अब तो जो परिस्थिति सामने है, हमे उसके मध्य का मार्ग खोजना ही पड़ेगा और अब अपनी बेटी का आगे का मार्ग प्रदर्शित करो" वगैरह....
तो, तो क्या मेरी बेटी अपरा भी, नहीं, नहीं. लगा, मै और सुजाता एक ही नाव में सवार है...नहीं., नहीं. मुझे कुछ तो करना पड़ेगा. फिर किसी तरह अपने को संयमित कर अजीत के आने का समय देख चाय बनाने चल दी.
उलझते, सोचते - समझते दिल्ली में इंजीनियरिंग कर रही अपनी बेटी अपरा के आने की अधीरता से प्रतीक्षा करने लगी. उसके आने पर वही उछल कूद, खाने से लेकर कपड़ों तक की फरमाइशे, मानो घर आंगन मे छोटी छोटी चिड़िया चहचहा रही हो.
एक दिन डिनर टाइम पर उचित समय देख सुजाता की बेटी का जिक्र छेड़ा तो वह बोली-अरे छोड़ो भी मां, हमे किसी से क्या लेना देना.
अच्छा चल - "छोड़ भी दूँ , पर कैसे बेटा? कैसे इस जहर से अपने प्रदूषित होते समाज को बचाऊं?
"मां, सबकी अपनी जिंदगी है जो जिसका मन चाहे वो करे "- वह बोली.
आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें
डिजिटल
गृहशोभा सब्सक्रिप्शन से जुड़ेें और पाएं
- गृहशोभा मैगजीन का सारा कंटेंट
- 2000+ फूड रेसिपीज
- 6000+ कहानियां
- 2000+ ब्यूटी, फैशन टिप्स
डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन
गृहशोभा सब्सक्रिप्शन से जुड़ेें और पाएं
- गृहशोभा मैगजीन का सारा कंटेंट
- 2000+ फूड रेसिपीज
- 6000+ कहानियां
- 2000+ ब्यूटी, फैशन टिप्स
- 24 प्रिंट मैगजीन