तीन दिन हो गए स्वाति का फोन नहीं आया तो मैं घबरा उठी. मन आशंकाओं से घिरने लगा. वह प्रतिदिन तो नहीं मगर हर दूसरे दिन फोन जरूर करती थी. मैं उसे फोन नहीं करती थी यह सोचकर कि शायद वह बिजी हो. कोई जरूरत होती तो मैसेज डाल देती थी.
मगर आज मुझसे नहीं रहा गया और शाम होते-होते मैंने स्वाति का नंबर डायल कर दिया. उधर से एक पुरुष स्वर सुनकर मैं चौक गई. हालांकि फोन तुरंत स्वाति ने ले लिया मगर मैं उससे सवाल किए बिना नहीं रह सकी.
"फोन किसने उठाया था स्वाति ?"
"मां, वह रोहन था.... मेरा दोस्त." स्वाति ने बेहिचक जवाब दिया.
"मगर तुम तो महिला छात्रावास में रहती हो ना...क्या वहां पुरुष मित्रों को भी आने की इजाजत है? वो भी इस वक्त?" मैंने थोड़ा कड़े लहजे में पूछा.
"मां अब मैं हौस्टल में नहीं रहती. मैं रोहन के साथ रह रही हूं उसके फ्लैट में. रोहन मेरे साथ हीं पढ़ता है."
"क्या....? कहीं तुमने हमें बताए बिना शादी तो नहीं कर ली?"
"नहीं मां....हम लिव इन रिलेशनशिप में रह रहे हैं."
"स्वाति तुम्हें पता है तुम क्या कर रही हो? अभी तुम्हारी उम्र अपना कैरियर बनाने की है और तुम्हारी ही उम्र का रोहन, वह क्या तुम्हारे प्रति अपनी जिम्मेदारी समझता है?"
"मां, हम दोनों सिर्फ दोस्त हैं"
"स्त्री-पुरुष दोस्त होने से पहले एक स्त्री और पुरुष होते हैं. कुछ नहीं तो कम से कम अपने और परिवार की मर्यादा का तो ख्याल रखा होता है. हमने तुझे आधुनिक बनाया है, इसका मतलब यह तो नहीं कि तू हमें यह दिन दिखाए. लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे?" मैं पूरी तरह से तिलमिला गई थी.