चिलचिलाती गरमी में 28 वर्षीय अध्यापिका मल्लिका अदालत के बाहर बैठी अपने केस की सुनवाई का इंतजार कर रही थी. पिछले कुछ महीनों में यह उस की 13वीं सुनवाई थी. वह अपने पति से तलाक, मासिक खर्च और अपने 3 वर्षीय बेटे की कस्टडी चाहती है.
मल्लिका जानती है कि अंतिम निर्णय आने में अभी कई महीनों या फिर साल भी लग सकते हैं. इस दीर्घकालिक प्रक्रिया में स्कूल से अवकाश लेना समय व धन दोनों का खर्च है. यों तो यह केस लंबा नहीं खिंचता, लेकिन कभी जज नहीं आता, तो कभी उस का पति.
मल्लिका का कहना है, ‘‘एक दिन ऐसा आया जब मेरे सब्र का बांध टूट गया और हम अदालत में खड़े हो गए. अदालत ने मुझ से सौम्य व्यवहार रखने को कहा और फिर हमें काउंसलिंग के लिए भेज दिया, क्योंकि फैमिली कोर्ट का यह आवश्यक भाग है. काउंसलर ने मंगलसूत्र न पहनने पर मुझ से कहा कि मैं अभी भी विवाहिता हूं और मंगलसूत्र न पहन कर भारतीय संस्कृति का अनादर कर रही हूं. काउंसलर ने मेरे पति से पूछा कि क्या वह मुझे प्रेम करता है, तो उन्होंने हां में जवाब दिया. काउंसलर ने फिर मुझ से पूछा कि फिर तुम्हें क्या चाहिए? तब मैं ने कहा कि मुझे सम्मान चाहिए. जब भी मैं सम्मान की बात करती हूं तो कोई कुछ नहीं बोलता, सब कुछ एकतरफा है.’’
2011 में वैलेंटाइन डे पर मुंबई निवासी 40 वर्षीय सिमरन ने भी मुंबई की परिवार अदालत में अपना वाद दाखिल किया है. वे अपने पति से तलाक तथा अपनी बेटियों की कस्टडी चाहती हैं. लेकिन वहां के न्यायाधीश ने भी पितृसत्तात्मक सलाह देते हुए उन से कहा कि तुम्हें किसी रेस्तरां में अपने पति के साथ बैठ कर भोजन करना चाहिए. तभी आपसी वार्त्तालाप के जरीए अपनी समस्या का समाधान निकालें. ऐसा करना बच्चों के भविष्य के लिए जरूरी है.
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