हाल के दिनों में भूमाता बिग्रेड (एक गैरसरकारी संस्था) और उस की प्रमुख तृप्ति देसाई, अहमदनगर, पुणे (महाराष्ट्र) सुर्खियों में छाई रही. मसला था शिरडी स्थित शनि सिंगला मंदिर में शनि की मूर्ति को महिलाओं द्वारा पूजा जाना और मंदिर प्रांगण में वर्जित महिलाओं के प्रवेश पर लगी रोक को ले कर विरोध प्रदर्शन.
इसी कड़ी में एक और मंदिर (सबरीमाला) भी जुड़ गया, जहां रजस्वला महिलाओं द्वारा मंदिर के गर्भगृह में पूजन को ले कर विरोध प्रदर्शन और होहल्ला हुआ. 2 अप्रैल, 2016 को मंदिर के बाहर भीड़ जमा हुई और मुंबई उच्च न्यायालय के आदेश का हवाला देते हुए तृप्ति देसाई ने मंदिर में जाने की जिद की.
कर्मकांड और ईश्वर का भय दिखा कर महिलाओं के साथ तरहतरह के भेदभाव लगातार होते रहे हैं, जिस के केंद्र में हमेशा से स्त्रीदेह रही है.
भारत में न जाने कितने ऐसे मंदिर हैं, जहां मासिकधर्म के दौरान महिलाओं का प्रवेश घोर पाप व एक तरह का अपराध माना जाता है. पोंगापंडितों ने पापपुण्य, धर्मअधर्म, कर्मकांड का भय दिखा कर हमेशा से अपना हित साधा और अपनी झोलियां भरते रहे हैं.
दरअसल, रजोधर्म एक बायोलौजिकल प्रक्रिया है, जो न केवल स्वस्थ शरीर का प्रतीक है, बल्कि मां बनने के नैचुरल प्रोसैस का एक सशक्त सिंबल भी है. एक तरह से शौच जाने और पेशाब करने जैसी प्रक्रिया है यह.
इस दौरान महिलाओं के मंदिर प्रवेश पर सख्त मनाही होती है. यहां तक कि मंदिर के आसपास फटकने और पूजन सामग्री आदि तक को हाथ लगाने पर भी पाबंदी होती है. लगभग सभी मंदिर प्रशासनों ने इस संबंध में एक जैसे ही नियम बना रखे हैं, जिन्हें न चाह कर भी महिलाओं को मानना पड़ता है. पाप चढ़ने का भय इतना हावी होता है कि महिलाएं (कुछ छिटपुट घटनाओं को छोड़ कर) इस के खिलाफ आवाज न उठा चुपचाप नियमों को ईश्वर व धर्माधिकारियों की आज्ञा समझ कर मानती हैं.