Mobile : मोबाइलों की लत से परेशान पेरैंट्स आजकल सरकारों पर दबाव डाल रहे हैं कि उन के बच्चों को इस आग से निकालें और सोशल मीडिया पर कंट्रोल करें. आज का टीन ही नहीं, प्रीटीन भी और यंग भी सोशल मीडिया का इतना हैबिचुअल हो गया है कि सरकारों का बस नहीं चल रहा कि कैसे इस टैक्नोलौजी का मिसयूज रोका जाए.

इस का मिसयूज असल में पेरैंट्स ने खुद ही सिखाया है. छोटे बच्चों को टीवी स्क्रीन और मोबाइल स्क्रीन पकड़ा कर उन्होंने अपनी आफत तो बचा ली पर उन्हें ऐसे जोन में फेंक दिया जिस से निकल नहीं पा रहे. अब से 100 साल पहले जब मांओं के 8-10 बच्चे होते थे और घर, चूल्हा, चक्की के सैकड़ों काम होते थे, रोते बच्चों को चुप रखने के लिए अकसर मांएं या उन की धाइयां उन्हें अफीम चटा देती थीं. ग्राइपवाटर में भी अल्कोहल मिला होता था जो बच्चों को शांत कर देता था पर उन की हैल्थ पर बुरा असर डालता था.

मोबाइल जरूरी है. मोबाइल में फोटो वीडियो भी जरूरी है. पर यह शुगर की तरह है, फैट्स की तरह है जिसे ज्यादा खाओगे और वही खाओगे तो मोटे हो जाओगे, हजार बीमारियां होंगी. आज की मौडर्न मांओं ने अपने बच्चों को पालने से बचने के लिए उन्हें मोबाइल ऐडिक्ट बना डाला है और अब वे सरकारों से कह रही हैं कि उन के बच्चों को बचाओ, वे मोबाइल ऐडिक्शन के कलप्रिट हैं.

यह मजेदार बात है जिस ने गुनाह किया वह कहे कि मैं तो गुनाह करता रहूं पर विक्टिम को पकड़ कर उस के हाथपैर बांध दो. यह कैसे पौसीबल है? यह सपने देखना है. मोबाइल से यंग जैनरेशन को बचाना है तो ऐल्डर जैनरेशन को घरों में स्क्रीनों को हटा कर किताबें भरनी चाहिए. घरों में पूजाघरों की जगह लाइब्र्रेरी रैक्स लगने चाहिए. जो पैसा डेटा और टीवी प्लेटफौर्म्स को सब्सक्राइब करने पर खर्चा जाता है वह पढ़ने की चीजों, खेलने की चीजों, हौबीज पर खर्च किया जाना चाहिए.

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