माना जाता है कि मुसलिम विवाहों के झगड़ों के मामले आपस में सुलटा लिए जाते हैं और ये अदालतों में नहीं जाते पर अदालतें शादीशुदा मुसलिम जोड़ों के विवादों से शायद आबादी के अनुपात से भरी हुई हैं. ये मामले कम इसलिए दिखते हैं कि गरीब हिंदू जोड़ों की तरह गरीब मुसलिम जोड़े भी अदालतों का खर्च नहीं उठा सके और पतिपत्नी एकदूसरे की जबरदस्ती सह लेते हैं.
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल में एक मामले में एक मुसलिम पति को पत्नी को अपने साथ रहने को मजबूर करने का हक देने से इंकार कर दिया क्योंकि उस पति ने दूसरी शादी भी कर ली थी और इसलिए पहली पत्नी अपने पिता के घर चली गर्ई थी. पहली पत्नी अपने पिता की इकलौती संतान है और उस के पिता ने मुसलिम कानून की जरूरत के हिसाब से जीते जी सारी संपत्ति बेटी को उपहार कर दी थी.
हालांकि अदालत ने कुरान का सहारा लिया, पतिपत्नी के मामलों में झगड़ों में धर्म को लिया ही नहीं जाना चाहिए क्योंकि धर्म ने जबरन एक आदमी और औरत के साथ रहने के अनुबंध पर सवार हो चुका है. शादी का न तो मंदिर से कोई मतलब है, न चर्च से, न मुल्ला से, न ग्रंथी से, शादी 2 जनों की आपसी रजामंदी का मामला है.
और जब रजामंदी से किसी की शादी की है कि दोनों किसी तीसरे को अपने संबंधों के बीच न आने देंगे तो यह माना जाना चाहिए, बिना चूं चपड़ के. कानून को पतिपत्नी के हक देने चाहिए लेकिन कौट्रैंक्ट एक्ट के हिसाब से, धर्म के हिसाब से नहीं. पति पत्नी के अधिकार एकदूसरे पर क्या हैं और वे अगर संबंध तोड़ें तो कौन क्या करेगा क्या नहीं, यह इसी तरह तय करना चाहिए जैसे पार्टनरशिप एक्ट, कंपनिज एक्ट, सोसायटीज एक्ट में तय होता है. धर्म बीच में नहीं आता. शादी न भगवानों के कहने पर होती है न भगवानों के कहने पर टूटती हैं.