मेरी एक रिश्तेदार की शहर में बड़ी कोठी है. मैं उस से मिलने उन के घर गई थी. एक सफाईकर्मी उन के घर काम कर रहा था. पहले तो उस ने सारे टौयलेट की सफाई की. फिर उन के घर की नालियों की. जब वह बाथरूम में जाने को होता तो आवाज देता, ‘‘बीबीजी, परदे खिसका लें.’’
मेरी रिश्तेदार जल्दी से परदे खिसकाती, तब वह सफाई करता यानी उसे पूरे घर में किसी चीज को छूने का कोई अधिकार नहीं था. मेरी रिश्तेदार उसे लगातार डांटे जा रही थी, क्योंकि वह 2 दिन से नहीं आया था.
‘‘बीबीजी, रमा बाई तो आ रही थी न?’’ सफाईकर्मी ने सिर खुजलाते हुए कहा, ‘‘ उस से सफाई करा लेतीं.’’
‘‘अब रमा बाई टौयलेट या नालियों की सफाई थोड़े न करेगी. उन की सफाई मैला साफ करने वाला ही तो करेगा,’’ मेरी रिश्तेदार ने कहा.
आखिर में जब वह जाने लगा तो बासी खाना पौलिथीन में बांध उस के हाथ पर ऊपर से यों टपकाया ताकि छू न जाए. इस बीच रमा बाई उन सारी जगहों पर पोंछा लगा रही थी जहां से वह गुजरा था.
बदलाव का दौर
कुछ देर वहां बैठ मैं वापस चली आई पर मैला साफ करने वाला वाक्य बहुत देर तक जेहन पर हथौड़े बरसाता रहा. 2 दिनों से उन की नालियों और टौयलेट की सफाई नहीं हुई थी. न तो उन्होंने खुद यह काम किया और न उन के यहां काम करने वाली बाई ने. आखिर अन्य जातियां ऐसी सोच क्यों रखती हैं कि यह काम मैला साफ करने वाला का ही है? गंदगी भले खुद की हो.
महात्मा गांधी ने इन्हें हरिजन नाम दिया. बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने इन के उत्थान हेतु कितना कुछ किया. पर क्या वास्तविकता में सोच बदली है इन के प्रति? संविधान में इन की भलाई के लिए कई बिंदू मौजूद हैं. पर जनमानस में इन की छवि आज भी अछूतों की ही है. दूसरों का मैला साफ करने वालों की नियति आज भी गंदी बस्तियों में ही रहने की है.
कई कहानियां और तथ्य मौजूद हैं जो भंगी शब्द की उद्भव गाथा का बयान करते हैं. हजारों वर्षों से मनुसंहिता आधारित सामाजिक व्यवस्था का चलन रहा है. भारत वर्ण एवं जाति व्यवस्था पर आधारित एक विशाल और प्राचीन देश है, जहां ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन 4 वर्णों के अंतर्गत साढ़े 6 हजार जातियां हैं, जो आपस में सपाट नहीं, बल्कि सीढ़ीनुमा हैं. यहां ब्राह्मण को सर्वश्रेष्ठ एवं भंगी को नीच समझा जाता है.
एक मान्यता के अनुसार इन का उद्भव मुगलकाल में होने का संकेत भी मिलता है. हिंदुओं की उन्नत सिंधु घाटी सभ्यता में रहने वाले कमरे से सटा शौचालय मिलता है, जबकि मुगल बादशाह के किसी भी महल में चले जाओ, आप को शौचालय नहीं मिलेगा. अरब के रेगिस्तान से आए दिल्ली के सुलतान और मुगल को शौचालय निर्माण का ज्ञान नहीं था.
दिल्ली सल्तनत से ले कर मुगल बादशाह तक के समय तक सभी पात्र शौच करते थे, जिन्हें उन लोगों से फिंकवाया जाता था, जिन्होंने मरना तो स्वीकार कर लिया था, लेकिन इसलाम को अपनाया नहीं. जिन लोगों ने मैला ढोने की प्रथा को स्वीकार करने के उपरांत अपने जनेऊ को तोड़ दिया अर्थात उपनयन संस्कार को भंग कर दिया, वे भंगी कहलाए. तात्कालीन हिंदू समाज ने इन के मैला ढोने की नीच प्रथा को भी महत्तर अर्थात महान और बड़ा करार दिया था, जो अपभ्रंश रूप में ‘मेहतर’ हो गया. वैसे इन बातों को एक कथाकहानी के तौर पर लेना चाहिए.
सच्ची और अच्छी बात यह है कि वर्ण व्यवस्था अब चरमरा रही है. परंतु ढहने में अभी और वक्त लगेगा. कानून और संविधान के जरीए बदलाव का बड़ा दौर जो अंगरेजी औपनिवेशिक काल में आरंभ हुआ था आज तक जारी है. असल बदलाव तो तभी माना जाएगा जब समभाव की भावना लोगों की मानसिकता में भी आए.
सफाई सब की जिम्मेदारी
मैं एक बहुमंजिला अपार्टमैंट के एक फ्लैट में रहती हूं. अपना टौयलेट हम खुद ही साफ कर लेते हैं. बिल्डिंग में कुछ बुजुर्ग या लाचार लोग हैं, जो अपने टौयलेट की सफाई के लिए अन्य लोगों की मदद लेते हैं. हमारी बिल्डिंग की साफसफाई का जिम्मा सफाईकर्मियों के एक दल का है, जो घरों से कचरा बटोरते हैं, नालियों और सार्वजनिक जगहों की साफसफाई भी करते हैं. सच पूछा जाए तो मुझे यह नहीं पता है कि ये किस जाति या वर्ण से हैं. सब साफ, स्मार्ट कपड़े और मोबाइल युक्त हैं. कइयों को मैं ने बाइक से भी आते देखा है. बचपन में अमेरिका में रहने वाले अपने रिश्तेदारों के मुख से मैं ने कुछ ऐसा वर्णन सुना था, जो हो सकता है शाम को कैफेटेरिया में आप की बगल की टेबल पर ही कौफी पी रहा हो, जिस ने सुबह दफ्तर के टौयलेट को साफ किया था.
उस वक्त देश में हमारे यहां एक विशेष नीले रंग की ड्रैस पहने जमादार आते थे, जिन का वेतन बेहद कम होता था और हाथ में झाड़ू और चेहरे पर बेचारगी ही उन की पहचान होती थी. हम आश्चर्य से अमेरिकी भंगियों के विषय में सुनते थे कि वे कितने स्मार्ट हैं.
पिछले दिनों एक सरकारी कंपनी में सफाईकर्मियों के पद के लिए सामान्य वर्ग के व्यक्तियों से आवेदन मांगा गया था. सचाई यह है कि जिन की पीढि़यां ये कर्म करती आई हैं उन के बच्चे इन कामों को करने से इनकार कर रहे हैं. नतीजा सफाईकर्मियों की भारी मांग हो गई है. अब जब इस काम में अच्छा पैसा मिलने लगा है तो हर वर्ण के लोग इसे करने लगे हैं. प्रतिशत अभी बेहद कम है पर रफ्तार अच्छी है. शहरों में मौल्स, हवाईअड्डे, रेलवे स्टेशन, विभिन्न बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दफ्तर यों ही नहीं चमचमाते दिखते हैं.
सोच बदलने की जरूरत
एक दिन मेरी वाली बिल्डिंग में ही एक सफाईकर्मी किसी दूसरे की शिकायत यों करते सुना गया, ‘‘नाच न जाने आंगन टेढ़ा, जाति का ब्राह्मण और चला है हमारे जैसे काम करने. मैडम वह रोहित है न, उस के दादा पंडिताई करते थे. बोलिए भला उसे क्या मालूम कि सफाई कैसे की जाती है?’’
भला लगा यह सुनना की दीवारें टूट रही हैं. मैं मुसकराते हुए आगे बढ़ गई.
आज देश में गांधीजी की सोच को आगे बढ़ाते हुए ‘स्वच्छता आंदोलन’ की खूब चर्चा हो रही है. बड़ेबड़े नेता, अभिनेता हाथों में झाड़ू ले कर सड़कों और नालियों की सफाई करते दिख रहे हैं. दलित, अछूत, मेहतर, जमादार और भंगी जैसे शब्द अब नेपथ्य में जाते दिख रहे हैं और इन के लिए एक सम्मानजनक शब्द ‘सफाईकर्मी’ प्रयुक्त किया जा रहा है. सच पूछा जाए तो इस आंदोलन या मुहीम की सफलता इन्हीं कंधों पर है.
इन की महत्ता तब समझ आती है जब ये अचानक छुट्टी या हड़ताल पर चले जाते हैं. शहरों, महानगरों में तो बदलाव की लहर चल पड़ी है, परंतु आज भी अंदरूनी क्षेत्रों, गांवों और कसबों में जहां सभी एकदूसरे को जानते हैं, अन्य जातियों के लोग सफाईकर्मी को अभी भी हेय दृष्टि से ही देखते हैं. गंदगी में रह लेंगे पर सफाई के प्रति जागरूक नहीं होंगे. गंदगी फैलाना सभी का कर्म होता है पर उसे साफ करना सिर्फ भंगी का धर्म. लोगों के बीच इस मानसिकता का प्रसार आवश्यक है कि कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता है. यदि अच्छा पैसा और सम्मान मिलने लगे तो निठल्ला बैठा ब्राह्मण या बनिए का बेटा भी नहीं हिचकिचाएगा. सोच बदलो देश बदलेगा.