हरियाणा,छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना, मध्य प्रदेश और हिमाचल प्रदेश  आदि राज्यों की सरकारों ने कहा है कि उन्हें नए इंजीनियरिंग कालेजों की जरूरत नहीं है. हर राज्य में पहले से निर्धारित सीटों में से आधी से ज्यादा खाली हैं. इंजीनियरिंग कालेजों की आर्थिक स्थिति डगमगा रही है. इन निजी कालेजों को छात्रों की फीस पर निर्भर रहना पड़ता है और कम छात्रों का अर्थ है कि कम छात्रों को पूरी फैकल्टी व विशाल इंफ्रास्ट्रक्चर का आर्थिक बोझ उठाना पड़ेगा.

देश के 3,291 इंजीनियरिंग कालेजों की 15.5 लाख सीटों में से आधी का खाली रहना बताता है कि देश के युवाओं का भविष्य संकट में है. इंजीनियरिंग स्किल देश की उन्नति में अनिवार्य है और इंजीनियर का कैरियर अब तक एक अच्छा व स्थायी माना जाता था. इंजीनियरों की घटती मांग और महंगी होती इंजीनियरिंग की शिक्षा का अर्थ है कि देश के कारखानों की हालत भी खराब है और मेक इन इंडिया केवल थोथा मंत्र है.

इंजीनियरिंग वास्तव में हमारी सोच के खिलाफ है. हम ठहरे विश्वगुरु, हम भला लोहे से काम क्यों करेंगे. हमारे यहां तो अच्छी नौकरियां पटवारी, हवलदार, इंस्पैक्टर, छोटे अफसर, क्लर्क, बाबू की हैं. कंप्यूटर हमें सुहाता है क्योंकि उस में हाथ काले नहीं करने पड़ते.

इंजीनियरों को मैले कारखानों में काम करना पड़ता है. उन्हें गरम या ठंडे मौसम में बिना सुखसुविधा के रहना पड़ता है. उन का वास्ता शूद्रों व दलितों से पड़ता है जिन्हें हमारे शासक न जाने क्याक्या कहते हैं. उन्हें पुचकार कर इंजीनियरों को उन से काम लेना पड़ता है.

किसी भी देश का विकास उस के इंजीनियरों के बलबूते होता है, ऐडमिनिस्ट्रेटरों, फाइनैंशियल एनालिस्टों, एमबीओं, बाबुओं, पटवारियों से नहीं. ये लोग केवल उन सामानों के निर्माण का लाभ उठाते हैं, वितरण करते हैं या उन की कीमत निर्धारित करते हैं जो इंजीनियरों ने बनाए. देश में इंजीनियर नहीं हैं, तभी हम जुगाड़ संस्कृति के गुणगान गाते हैं क्योंकि हमें मैकेनिकों से वे काम लेने पड़ते हैं जो इंजीनियरों के लायक हैं.

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