शिक्षा के जरिए ही समाज में हर तरह का बदलाव आ सकता है. अंधविश्वास, रूढि़वादिता, भेदभाव, छुआछूत वहीं सब से ज्यादा है जहां शिक्षा का अभाव है. अपने हक और अधिकार के लिए जरूरी है कि आप शिक्षित हों.

सरकारी स्कूलों का ढांचा इतना अच्छा नहीं है कि वे समाज के हर जरूरतमंद को शिक्षा दे सकें. कुछ वर्षों पहले तक की बात करें तो सरकारी स्कूलों में अंगरेजी की शिक्षा कक्षा 6 से दी जाती थी. जबकि मिशनरी स्कूलों में कक्षा 1 से ही अंगरेजी की पढ़ाई शुरू हो जाती थी.

मिशनरी स्कूलों की तादाद इतनी नहीं थी कि वे हर बच्चे को स्कूलों में दाखिला दे सकें. समाज के बडे़ और अमीर लोगों के लिए बड़ेबड़े शहरों में स्कूल खुले थे. उत्तराखंड का देहरादून शिक्षा के लिए पूरे देश में मशहूर था. वहां से पब्लिक स्कूल चलन में आए. धीरेधीरे पब्लिक स्कूलों का चलन पूरे देश में शुरू हो गया.

पब्लिक स्कूलों के चलन में आने का सब से बड़ा कारण यह था कि सरकारी स्कूल समाज की जरूरत के हिसाब से बेहतर शिक्षा व्यवस्था मुहैया कराने में असफल हो रहे थे. 1980 से पब्लिक स्कूलों की शुरुआत हर छोटेबडे़ शहर में शुरू हो गई. 10 वर्षों के अंदर यह जरूरत या कहें मजबूरी सी बन कर उभर आए.

यह सही बात है कि इसी दौर से शिक्षा का बाजारीकरण शुरू हो गया. शिक्षा के बाजारीकरण की भी अपनी जरूरत थी. स्कूलकालेज खोलने, वहां बेहतर सुविधाएं देने और शिक्षा के स्तर को बनाए रखने के लिए मजबूत अर्थतंत्र की जरूरत होती है. इस के लिए सारा बोझ स्कूली बच्चों और उन के अभिभावकों पर पड़ने लगा.

सरकारी स्कूलों और प्राइवेट स्कूलों की फीस में लंबाचौड़ा अंतर हो गया. फीस के अंतर के बावजूद अभिभावकों ने सरकारी स्कूलों की जगह प्राइवेट स्कूलों को तरजीह दी.

सरकारी स्कूलों का बनाबनाया ढांचा प्राइवेट स्कूलों के आगे बिखरने लगा. साल 1990 के आतेआते शिक्षा में प्राइवेट स्कूलों का महत्त्व और प्रभाव तेजी से बढ़ गया. अब शिक्षा व्यवस्था की कल्पना बिना प्राइवेट स्कूलों के नहीं की जा सकती.

प्राइवेट स्कूलों के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए सरकारी तंत्र ने उस में दखल देना शुरू कर दिया. मिशनरी स्कूलों में सरकारी तंत्र का हस्तक्षेप पहले बहुत कम होता था. वहां भी सरकारी तंत्र का प्रभाव बढ़ने लगा. स्कूलों में शिक्षकों की नियुक्तियों से ले

कर परीक्षा के तौरतरीकों, छुट्टियों व नियमकानून का पालन करने जैसे कई रोड़े खड़े कर दिए गए. पब्लिक स्कूलों को तो सरकारी तंत्र ने दुधारू गाय समझ लिया.

पब्लिक स्कूलों पर सरकार का शिकंजा कुछ इस तरह कसने लगा कि वे फीस बढ़ाने पर मजबूर होने लगे. पब्लिक स्कूल चलाने वालों को उलझाने के काम शुरू हो गए.

बेहतर हैं प्राइवेट स्कूल

शिक्षा को समाजसुधार का सब से बड़ा माध्यम माना जाता है. पब्लिक स्कूल छोटे हों या बडे़, इस जरूरत को पूरा करते हैं. राज्यों के शिक्षा विभाग से परेशान पब्लिक स्कूलों ने धीरेधीरे स्टेट एजुकेशन बोर्ड से खुद को अलग करना शुरू कर दिया. कुछ ही दिनों में हालत यह हो गई कि ज्यादा से ज्यादा पब्लिक स्कूल अपने राज्य के स्टेट बोर्ड को छोड़ कर सीबीएसई यानी सैंट्रल बोर्ड औफ सैकंडरी एजुकेशन से जुड़ गए.

पब्लिक स्कूलों की मेहनत का नतीजा था कि सीबीएसई की साख अभिभावकों के बीच में बढ़ती गई. अभिभावक अपने बच्चों को सरकारी स्टेट बोर्ड वाले स्कूलों से निकाल कर सीबीएसई के स्कूलों में शिक्षा के लिए भेजने लगे. जहां स्टेट बोर्ड स्कूलों में बच्चों की संख्या कम होने लगी, वहीं सीबीएसई से जुड़े स्कूलों में बच्चों की संख्या बढ़ने लगी. पूरे देश में राज्य स्तरीय बोर्ड वाले स्कूलों को देखें तो वहां की हालत दयनीय होती जा रही है.

हमारी स्कूली शिक्षा व्यवस्था बहुत विशाल है. केंद्र और राज्य सरकारें मिल कर इन चुनौतियों से निबटने का काम करती हैं. इस के चलते पूरे देश में कई तरह की अलगअलग शिक्षा व्यवस्था काम करती है. जो अपनेआप में समान शिक्षा अधिकार की राह में सब से बड़ी चुनौती है.

देश के माध्यमिक स्कूलों में करीब 5 करोड़ छात्र पढ़ते हैं. इन में से 2 करोड़ कक्षा 9 से 12 के बीच पढ़ते है. शेष 3 करोड़ कक्षा 6 से 8 के बीच पढ़ते हैं.  राज्य स्तरीय बोर्ड से लोगों का मोहभंग हो रहा है. शहरों में राज्य स्तरीय शिक्षा बोर्ड के स्कूलों की हालत खराब है. वहां पर छात्रों की संख्या में लगातार गिरावट आती जा रही है.

पब्लिक स्कूलों और राज्य स्तरीय शिक्षा बोर्ड के स्कूलों में पढ़ाई की हालत को देखने के लिए बिहार के हालत को देखें तो काफी कुछ तसवीर समझ आती दिखेगी. बिहार माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की 12वीं के नतीजे काफी कुछ कहते हैं. यहां पर कुल 34 प्रतिशत छात्र ही पास हो सके. जबकि पिछले साल यह 62 प्रतिशत था. उस साल बिहार में नकल को ले कर बहुत बदनामी हुई थी. बिहार में फर्जी तरीके से टौप करने वाली लड़की को जेल तक जाना पड़ा था. 2015 में यह प्रतिशत 87 था.

बिहार में लगातार एक ही पार्टी की सरकार है. ऐसे में इस तरह के हालात बताते हैं कि शिक्षा के साथ किस तरह से खेल हो रहा है. 2016-17 की परीक्षा में बिहार में 13 लाख छात्रों ने परीक्षा दी थी. इन में से 8 लाख से ज्यादा फेल हो गए.

छात्र नहीं, शिक्षक जिम्मेदार

बिहार की ही तरह पंजाब और उत्तर प्रदेश के हालात भी हैं. वहां पर भी राज्य स्तरीय शिक्षा बोर्ड के स्कूलों का बुरा हाल है. वहां पर पढ़ाई की गुणवत्ता  खराब है. नकल का बोलबाला है.

उत्तर प्रदेश में प्राइमरी स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षामित्रों में से 60 फीसदी शिक्षामित्र टीचिंग की परीक्षा टीईटी पास नहीं कर पाए हैं. इस वजह से वे बिना टीईटी परीक्षा पास हुए शिक्षक के रूप में समायोजन की लड़ाई लड़ रहे हैं. कई बार इन शिक्षकों के सामान्य ज्ञान का टैस्ट लिया गया तो वे फेल हो गए.

गणित, अंगरेजी के विषय पढ़ाने वाले अपने विषयों के बारे में पूछे गए सवालों का सही जवाब देने में असफल रहे.

10 सालों में सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षकों की सुविधाओं में बेतहाशा वृद्धि हुई है. इस के बाद भी शिक्षा की व्यवस्था खराब होती जा रही है. इस से साफ लगता है कि सरकारी शिक्षा व्यवस्था समाज की जरूरतोंपर खरी नहीं उतर रही है.

एक तरफ खराब गुणवत्ता वाले सरकारी स्कूल हैं तो दूसरी ओर पब्लिक स्कूल अपने में लगातार सुधार करते जा रहे हैं. स्मार्ट क्लास से ले कर अच्छे हवादार कमरे वाले स्कूल, बैठने के लिए फर्नीचर, स्कूल में पूरी पढ़ाई, घर से स्कूल आनेजाने के लिए वाहन सुविधा, स्कूल में केयर करने वाले टीचर और बेहतर परीक्षा प्रणाली पब्लिक  स्कूलों में उपलब्ध है.

यह सच है कि ये सुविधाएं स्कूल का मैनेजमैंट फीस के जरिए ही मुहैया करता है. अभिभावक इस तरह की सुविधाएं देख कर ही अपने बच्चों को इन स्कूलों में भेजते हैं. ऐसे में मंहगी फीस की बात करनी बेमानी हो जाती है. कुछ अभिभावक महंगी फीस को ले कर सरकार पर दबाव बना रहे हैं कि पब्लिक स्कूल फीस कम कर दें.

शिक्षा की चुनौतियां

देश की शिक्षा व्यवस्था अलगअलग तरह की है. जरूरत इस बात की है कि देश में समान शिक्षा व्यवस्था लागू हो. अभिभावक सस्ती और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा चाहते हैं. ऐसे में जरूरत है कि पब्लिक  स्कूलों में शिक्षा सस्ती हो.

सरकार अगर शिक्षा विभाग की रिश्वतखोरी को बंद कर दे, स्कूल प्रबंधन को जमीन खरीदने से ले कर स्कूल बनाने तक सरकारी विभागों के चक्कर न काटने पडे़ं और रिश्वतखोरी से लड़ना न पडे़ तो शिक्षा व्यवस्था काफी हद तक सस्ती हो सकती है.

स्कूल को चलाने के लिए आर्थिक जरूरत होती है. स्कूलमालिक इन जरूरतों को पूरा करने के लिए फीस पर ही निर्भर करता है. जिस तरह से स्कूलों की संख्या बढ़ती जा रही है उस से किसी भी स्कूल को पर्याप्त संख्या में बच्चे नहीं मिल पाते हैं.

स्कूली शिक्षा में गुणवत्तापरक शिक्षा का न मिलना सब से बड़ी परेशानी है. देशभर के स्कूलों को देखें तो मोटेतौर पर 3 तरह के स्कूल हैं. सरकारी स्कूल, सरकारी सहायता प्राप्त निजी स्कूल और प्राइवेट स्कूल, ये ही शिक्षा व्यवस्था को संभालते हैं.

15 साल पहले तक सब से अधिक बच्चे सरकारी स्कूलों में, उस के बाद सहायता प्राप्त सरकारी स्कूलों में और सब से कम बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ने जाते थे. अब यह संख्या उलट गई है. सब से अधिक बच्चे पब्लिक स्कूलों में हैं. सब से कम बच्चे सरकारी स्कूलों में हैं. सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या को बढ़ाने के लिए सरकार ने मिडडे मील से ले कर दूसरी तमाम तरह की सुविधाएं देनी शुरू की हैं. इस के बाद भी यह संख्या कम होती जा रही है.

सरकारी स्कूलों का पुराना ढर्रा

स्कूलों में शिक्षा को सुधारने के लिए बड़े वित्तीय निवेश की जरूरत होती है. यह केवल सरकार के वश की बात नहीं है. स्कूलों में बुनियादी जरूरतों को पूरा करने में सरकारी स्कूल असफल हो गए हैं. सरकारी स्कूलों में आधुनिक शिक्षा व्यवस्था नहीं है.

पब्लिक स्कूल अपने पाठ्यक्रम में सूचना प्रौद्योगिकी को शामिल कर चुके हैं. पब्लिक स्कूलों में टीचरों और छात्रों को कंप्यूटर, लैपटौप और टैबेलेट जैसी सुविधाएं मिलने लगी हैं. सरकारी स्कूल इस बदलाव से बहुत दूर हैं. पब्लिक स्कूलों को अपने साथ के स्कूलों से मुकाबला करना होता है, इसलिए वे अपने को बेहतर बनाने का काम करते हैं. जिस का लाभ पढ़ने वाले बच्चों को मिलता है. सरकारी स्कूलों की आपस में कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है, जिस की वजह से वे किसी भी तरह के बदलाव को करने में पीछे रहते हैं.

नकल की सब से बड़ी परेशानी सरकारी स्कूलों में ही देखने को मिलती है. पब्लिक स्कूलों में नकल की परेशानी कभी सुनने को नहीं मिलती. सरकारी स्कूलों में सामूहिक नकल इसलिए होती है क्योंकि शिक्षक सालभर बच्चों को पढ़ाते नहीं. कई स्कूल केवल नकल करा कर ही बच्चों को ज्यादा से ज्यादा नंबर दिलाने का काम करते हैं. सो, शिक्षा में बडे़ बदलाव की जरूरत है.

सरकारी लालफीताशाही के चलते सरकारी स्कूल खुद को बदलने को तैयार नहीं हैं. शिक्षक खराब व्यवस्था की जिम्मेदारी पेरैंटस पर डालते हैं तो अभिभावक टीचर और सरकारी अमले पर. अभिभावक अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए पब्लिक स्कूलों की तरफ जाते हैं जहां उन को बेहतर शिक्षा की उम्मीद दिखती है. जरूरत इस बात की है कि शिक्षा व्यवस्था में आवश्यक व समुचित बदलाव किए जाएं ताकि सभी को गुणवत्तापरक शिक्षा मिल सके.

GS-660

CLICK HERE                   CLICK HERE                     CLICK HERE

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...