कला और संस्कृति सालों से हमारे गांवों में प्रचलित है, लेकिन शहरीकरण के वजह से ये कला प्राय: लुप्त होते जा रहे है, क्योंकि गांव में उन्हें पूरी मजदूरी न मिलने और नए जमाने से सम्बन्ध न रख पाने की वजह से वे अपनी जरूरतों को पूरा नहीं कर पाते, ऐसे में वे और उनके बच्चे इस पारंपरिक कला को छोड़कर शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं. जहां उन्हें न तो ढंग के काम मिलते हैं और न ही यहां टिक पाते हैं, ऐसी ही समस्याओं को झेलते हुए, वे अंत में आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाते हैं.
ये इलाका है गुजरात का कच्छ रीजन, जहां पहले तो नमक की खेती होती थी, लेकिन प्रकृति की मार के चलते ये व्यवसाय अब करीब बंद होकर मरुस्थल में परिवर्तित हो चुका है. ऐसे में घर की महिलाओं ने जिम्मेदारी सम्भाली और खाली समय में कपड़ों की सिलाई और कढ़ाई कर घर चलाने लगीं. अपनी जगह पर रहकर ऐसे ही हालात से निकलने और अच्छी जिंदगी मुहैय्या करवाने में इन महिलाओं का साथ दे रही हैं, चंदाबेन श्राफ की संस्था ‘श्रूजन’ जो उन्हें उनका हक दिलवाने में मददगार साबित हो रही है.
पिछले 40 साल से जुड़ी इस संस्था की फैशन डिजाइनर सुधा पटेल कहती हैं कि मैं उन्हें नयी-नयी डिजाइन से कारीगरों को परिचय करवाती हूं जिसमें ड्रेस की सिलाई, कढ़ाई और मार्केट की मांग को उन्हें बताती जाती हूं. हमारे कारीगर सारे गांव के हैं और पढ़े लिखे न होने के बावजूद कढ़ाई में माहिर हैं.
120 गांव की 4 हजार महिलाएं इस काम से जुड़ी हैं, जो 10 अलग-अलग समुदाय से सम्बंधित हैं, यहां काम करती हैं. अहीर, सोडा, राजपूत, मोतवा आदि सभी समुदाय की महिलाएं जो कच्छ और बनासकांठा में थरा क्षेत्र से हैं इस काम से जुड़ी हैं. हर गांव की कला अलग और खास है. थरा में रहने वाली महिलाएं ‘सूफ वर्क’ में काफी पारंगत हैं. यहां के पुरुष पशुपालन और चरवाहे का काम करते हैं.