मुंबई की ओर दौड़ती राजधानी ट्रेन में बैठीं आशा, रीता, शैल और सुनील बातचीत करतेकरते अंधविश्वास और रूढ़ियों पर चर्चा करने लगे.
‘‘दुख और शर्म की बात है कि शिक्षित और उच्चपदों पर आसीन लोग भी धर्म और रीतियों के नाम पर लकीर के फकीर बन उन्हें निभाते चले जाते हैं. विरोध करने का साहस नहीं जुटा पाते और कभी साहस करने की कोशिश की भी जाए तो लोग उन के खिलाफ खड़े हो जाते हैं,’’ आशा बोली. ‘‘ठीक कह रही हैं आप. उत्तर प्रदेश के शहरों में तो पुराने रीतिरिवाजों का बोलबाला है. जीतेजी तो परंपराएं मानी ही जाती हैं मृत्यु के बाद भी पंडितों को पूछना पड़ता है. जो पंडित कहता जाए वही करना पड़ता है. मेरे ससुरजी पूरे डेढ़ वर्ष से बिस्तर पर थे, हमारी आर्थिक स्थिति के साथसाथ मानसिक स्थिति भी संकट में थी. हम पूरे तनमन से उन की सेवा कर रहे थे. पर सबकुछ करने के बाद भी परिणाम उन का देहावसान ही रहा. जब इलाज करने की बात थी और पैसों की बात थी तो पंडित गायब थे, पर मौत के बाद आ धमके,’’ रीता ने समर्थन किया.
‘‘ससुरजी के अंतिम संस्कार आदि के बाद, शैयादान परंपरा के वक्त मोटेतगड़े पंडित को बाजार से कपड़े, गद्दा, रजाई, बैड, छतरी, कैश, खाद्यसामग्री देते वक्त मन कसैला हो उठा कि यह सामान क्यों दिया जा रहा है... पंडितजी तो सोने की लक्ष्मीनारायण की मूर्ति की मांग करने लगे. मेरे पति ने जब इस मांग पर असमर्थता जताई, तो पंडितजी का जवाब था कि उतना कैश दे दें. वे स्वयं खरीद लेंगे.