जल्लीकट्टू भारत के सब से बेकार त्योहारों में से एक है. वह इसलिए कि जिन पशुओं से पूरा साल काम लेने के बदले हमें उन का सम्मान करना चाहिए, बजाय इस के उन्हें इस अवसर पर प्रताडि़त किया जाता है. यह अमानवीय जश्न मकर संक्रांति या मौनसून की घोषणा करते समय मनाया जाता है. गाय, भैंस, बैल, सांड़ आदि पशुओं का सचमुच हमें सम्मान करना चाहिए, क्योंकि ये पशु ही हमारा बोझ ढोते हैं, फसलें उगाने में हमारे सहायक होते हैं. फिर इन की ही पीठ पर फसलों को लाद कर बेचने के लिए ले जाया जाता है.

तमिलनाडु का त्योहार जल्लीकट्टू बर्बरता की एक मिसाल बन गया था, जिस में सांड़ों को अंधेरे कमरों में बंद कर के बारबार पीटा जाता था. इतना ही नहीं, इन्हें जबरन शराब पिलाई जाती थी और गुदा में मिर्चें भी भरी जाती थीं. यह सिलसिला तब तक चलता था जब तक कि सांड़ दर्द की वजह से पागल न हो जाएं. इस के बाद इन्हें जवान लोगों की भीड़ में छोड़ दिया जाता था. लोग सांड़ों को उकसाते थे. उन की पीठ पर चढ़ कर उन के कान खींचते थे. इस जश्न में हर साल कई सांड़ और आदमी मारे जाते थे.

यह अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने इस जश्न पर पूरी तरह रोक लगा दी. कर्नाटक में एक बार मकर संक्रांति का त्योहार कुछ इस तरह मनाया गया कि लोमडि़यों को पकड़ कर पिंजरों में बंद कर के सड़कों पर उन की परेड निकालने के बाद उन्हें मार दिया गया. मेरी टीम ने इस काम को लगभग 20 साल पहले बंद करवाया था.

बर्बरता के त्योहार और भी

नागपंचमी: यह भी एक बीभत्स त्योहार है. धार्मिक गं्रथों के अनुसार सावन के महीने में नागपंचमी मनाई जाती है. इस त्योहार में दिन में केवल एक बार भोजन करने का नियम है और इस दिन महिलाएं रंगोली में सांपों के चित्र भी बनाती हैं. इतना ही नहीं सोने, चांदी, लकड़ी और मिट्टी के सांप भी बनाए जाते हैं और फिर उन से मनोकामना पूरी करने की प्रार्थना की जाती है.

फसलों से जुड़े इस उत्सव में तो सांपों का सम्मान होना चाहिए, क्योंकि वे खेतों में चूहों का शिकार कर के फसलों की सुरक्षा करते हैं. पर ऐसा नहीं होता है. इस उत्सव के कई सप्ताह पहले सैकड़ों सांपों को पकड़ कर टोकरियों में रखा जाता है. बाद में उन्हें टोकरियों से रस्सी की तरह खींचा जाता है. जहर निकालते समय हथौड़े के वार से उन के जबड़े तक टूट जाते हैं. इस के बाद उत्सव वाले दिन उन्हें महिलाओं के सामने लाते हैं और महिलाएं उन सापों को दूध पिलाती हैं.

इस दिन शाम होने तक हजारों सांप दम तोड़ देते हैं, क्योंकि दूध से उन्हें ऐलर्जी होती है. मरे हुए सांपों की त्वचा बैग और जूते आदि बनाने वालों को बेच दी जाती है.

कोरापुट का चैत्र पर्व: चैत्र पर्व कोरापुट के आदिवासियों का प्रमुख त्योहार है. यह पर्व उड़ीसा के मयूरभंज, सुंदरगढ़ और क्योंझर के साथसाथ झारखंड के सिंघभूम में भी मनाया जाता है. पर्व के दौरान पूरा महीना आदिवासी नाचगाना करते हैं और पशुओं की बलि देते हैं. आदिवासी नर जंगल में, जो भी जानवर उन के सामने आता है, उस का वे शिकार करते हैं. यहां तक कि सियार का भी. बलि के बाद जानवरों का मांस पूरे गांव में बांट दिया जाता है.

कोरापुट की बोंडा जनजाति के लोग पहाड़ों पर रहते हैं. ये 10 दिनों तक चलने वाला त्योहार सूमेगेलिरक मनाते हैं. इस दौरान इन के पुजारी पशुओं और पक्षियों की बलि देते हैं और अपने देवीदेवताओं को शराब चढ़ाते हैं. इस के बाद जवान आदिवासी लड़के बारीबारी से एकदूसरे को पेड़ की शाखाओं से पीटते हैं.

केडू उत्सव: कोरापुट, फूलबनी और गंजम की कोंध जनजाति का केडू उत्सव इंसानी बलि के साथ शुरू हुआ था. अंगरेज हुकूमत ने इस प्रथा पर पाबंदी लगा दी थी. इसलिए अब ये लोग भैंस की बलि चढ़ाते हैं और वह भी बेहद बीभत्स तरीके से. पहले ये लोग भैंस को पेड़ से बांध देते हैं. फिर पुरुष और महिलाएं शराब पी कर भैंस के चारों तरफ डांस करते हुए 1-1 टुकड़ा भैंस का मांस काट कर निकालते रहते हैं. इस के बाद ये लोग मांस के टुकड़े और खून को ले जा कर उस खेत में गाड़ देते हैं जहां हलदी उगाई जाती है.

उड़ीसा की दूसरी आदिवासी जनजातियां जैसे ओराओं, हो, किसान और कोल माघ पर्व मनाती हैं जोकि फसलों से जुड़ा पर्व है. इस में काले पक्षी की बलि देने का और महुआ की शराब देवता को चढ़ाने का रिवाज है.

बिशू सेंद्र पर्व (शिकार पर्व): झारखंड में मई महीने में सैकड़ों आदिवासी इस पर्व को मनाने के लिए जंगलों में घुस जाते हैं. हथियार ले कर सिंघभूम और सरायकेला खारस्वान के आदिवासियों के साथसाथ पश्चिम बंगाल और उड़ीसा राज्य की सीमाओं पर बसे आदिवासी भी झुंड बना कर जंगलों में घूमते हैं और एक ही दिन में करीब 20 हजार जंगली पशुपक्षियों को मार गिराते हैं. पर्व के तौर पर तो यह त्योहार कई दशक पहले ही खत्म हो चुका है. मगर अब स्मगलर और दलाल यहां के आदिवासियों का इस्तेमाल जंगली जानवरों को मार कर उन का मांस लाने के लिए करते हैं ताकि वे इसे अच्छे दाम पर बेच सकें.

सूलिया यात्रा: बिशू सेंद्र की तरह ही सूलिया यात्रा नामक शिकार का पर्व बोलंगीर जिले के गांवों में मनाया जाता है. इस पर्व में जंगली मुरगों, बकरियों और भैंसों को बड़ी संख्या में मारा जाता है. आदिवासी जानवरों की बलि देने से पहले उन को साफ कर के हलदी से उन का अभिषेक करते हैं. इस के बाद हजारों लोगों की मौजूदगी में इन की बलि दी जाती है. इस बीच एक महिला को सूलिया देवी का अवतार यानी ‘देहुरी’ मान लिया जाता है. यह महिला ढोलनगाड़ों और मंत्रों के स्वर के बीच बलि चढ़ाए गए जानवर का खून पीती है.

खार्ची पर्व : त्रिपुरा में मनाया जाने वाले इस पर्व पर धरती की पूजा की जाती है. लेकिन इस में भी सैकड़ों भैंसें, बकरियां और कबूतर मौत के घाट उतार दिए जाते हैं. इस पर्व को मनाने की वजह सिर्फ इतनी है कि कुछ वर्ष पहले त्रिपुरा के राजा त्रिलोचन ने त्रिपुरा में 14 देवताओं की स्थापना की थी. एक बार एक जंगली भैंस इन देवताओं के पीछे पड़ गई थी. त्रिलोचन की मां ने उस भैंस को मारने में त्रिलोचन की सहायता की थी.

दशहरा: अक्तूबर माह में मनाया जाने वाला सालाना फसल का त्योहार दशहरा सभी पर्वों में सब से ज्यादा खूनी पर्व है. कोलकाता के कालीघाट में ढोलनगाड़ों के शोर के बीच इस दिन हजारों भेडें़ मौत के घाट उतार दी जाती हैं. शोकग्रस्त महात्मा गांधी इसे कभी न भूलने वाली मौत की नदी बुलाते थे.

दुर्गा पूजा और दशहरा पर्व के नाम पर देश के कई हिस्सों में पशुपक्षियों को मारा जाता है. रिवाजों के चलते हजारों मुरगियां, बकरियां और भेड़ें बलि चढ़ा दी जाती हैं और इन का मांस प्रसाद के तौर पर बांट दिया जाता है.

गुवाहाटी में कामाख्या देवी मंदिर में हजारों की संख्या में नर पशु बलि के नाम पर मौत के घाट उतार दिए जाते हैं.

उड़ीसा के सिरलो में महाअष्टमी के दिन दुर्गा मंदिर में बकरियां और मेमने बलि चढ़ा दिए जाते हैं. माघी पूर्णिमा के बाद पड़ने वाले मंगलवार को महाराष्ट्र के छिवरी में एक मेला लगता है. इस दिन करीब 7 हजार पशुओं की लक्ष्मी के सामने बलि दे दी जाती है. इसी दिन एक और मेले का आयोजन किया जाता है जिस का नाम है- कयार यात्रा. इस मेले में आधी रात के बाद भैंसों की बलि दी जाती है. छिपे मेमने को ढूंढ़ कर पीटपीट कर मार डालना इस मेले का मुख्य आकर्षण है. मेमने को ढूंढ़ निकालने वाला इसे मारने के बाद इस की आंतों को गले में डाल कर घूमता है.

और भी हैं खूनी पर्व: आंध्र प्रदेश के दुरजपल्ली गांव में हर साल दुरजपल्ली जत्र नामक पर्व मनाया जाता है, जिस में लिंगनामंटालु स्वामी मंदिर में जानवरों की हत्या की जाती है.

कर्नाटक राज्य के यादगीर जिले के माइलापुर गांव के सालाना मेले में पूजा करने आए लोग माइलारेश्वर देवता की पालकी पर फूलमालाओं व फलों के बजाय जिंदा मेमनों को फेंकते हैं.

बानेरघट्टा नैशनल पार्क के बाहर औरु हब्बा पर्व मनाने के लिए आदिवासियों के 2 ग्रुप हक्कीपिक्की और इरुलिगा भैंसों और बकरियों की बलि देते हैं.

अरुणाचल प्रदेश के अपतनिस लोग मौनसून पर्व म्योको मनाते हैं. 10 दिन चलने वाले इस त्योहार के आखिरी दिन हिरन की बलि चढ़ाते हैं.

मेघालय के नौंगक्रेम पर्व में देवताओं का धन्यवाद करने के लिए बकरे की बलि देने का रिवाज है.

अक्तूबर और नवंबर माह के दौरान दशहरा और काली पूजा पर्व के चलते और जनवरी से अप्रैल तक फसलों से जुड़े पर्वों के चलते, पशुपक्षियों की बलि देने का सिलसिला पूरा साल चलता रहता है. इस के अलावा अलगअलग तरह के जत्रा तो हैं ही पूरा साल.

बलियों की बर्बरता में आंध्र प्रदेश सब से आगे है. यहां सूअर के बच्चे को उलटा कर जमीन में गड़े भाले से बींधा जाता है. इस की चीख जितनी ज्यादा ऊंची होती है, उसे गांव और फसल के लिए उतना ही अच्छा माना जाता है.

आंध्र प्रदेश के एक मंदिर की दीवारें 6 फुट ऊंची हैं. यहां जानवरों को तब तक मारा जाता है जब तक कि उन का खून दीवारों के अंतिम हिस्से को न छू जाए. वारंगल के दुरजपल्ली गांव के एक पर्व में पुजारी बकरी के बच्चे को दांत से गरदन पर काट कर उसे मारता है.

आंध्र प्रदेश के ही एक और त्योहार में लोग बकरी के बच्चे को ले कर ऊंची चोटी पर चढ़ जाते हैं. वहां ये लोग उस की गरदन पर दांत से काट कर उस की जीभ बाहर खींच लेते हैं और बच्चे को तड़पनेमरने के लिए चोटी से नीचे एक बड़े तालाब में फेंक देते हैं. यहां पहले से ही दूसरे बच्चे हड्डियां टूटी होने की वजह से तड़प रहे होते हैं.

आंध्र के जिन गांवों में काली या पार्वती की अवतार अंकम्मा की पूजा होती है वहां भी बलि चढ़ाना अनिवार्य है.

अंकम्मा के पर्व पर लोग इस तरह डांस करते हैं जैसे उन पर शैतान का साया हो. इस दौरान पुजारी औरतों की वेशभूषा में आ कर भेड़ के गले की नस को दांत से काट कर उस का खून पीता है. इस के बाद वह खूंटों से बंधे छटपटाते जानवरों के बीच जुलूस निकाल कर मंदिर तक पहुंचता है. छटपटाते जानवरों को हारे हुए दुश्मन की तरह देखा जाता है.

हैदराबाद में बोनालू पर्व देवी गंगम्मा और उस के भाई पोथुलाराजू के लिए मनाया जाता है. बोनालू शब्द भोजनालू से बना है और यह पर्व जूनजुलाई में मनाया जाता है. लेकिन भोजन के रूप में यहां मुरगों और बकरियों को मार कर खिलाने का रिवाज है.

धर्म निश्चित रूप से खून की लालसा पूरी करने और हिंसा का बहाना मात्र हैं. उत्तराखंड बलियों पर रोक लगाने वाला पहला राज्य है. यह काम निशंक की भारतीय जनता पार्टी वाली सरकार और हाई कोर्ट ने मिल कर किया है. पुलिस और स्वयंसेवी संस्थाओं, खासतौर पर जानवरों से प्यार करने वाले लोगों ने इस चमत्कारिक काम को अंजाम देने के लिए कड़ी मेहनत की है, वहीं हिमाचल प्रदेश में आज भी जानवरों की हत्या का सिलसिला जारी है.

नई सरकार हत्याओं के इस सिलसिले को रोक सकती है. अगर केमल अतातुर्क तुर्की की संस्कृति को आधुनिकीकरण के बाद भी संजो सकते हैं तो भला हम क्यों नहीं? अब कोई भी हिंसा को और बढ़ावा नहीं दे सकता, क्योंकि ऐसा करना हम सभी के लिए खतरनाक है. इस बारे में आप भी उसी तरह शोध कर सकते हैं जिस तरह हम ने किया. पर्व के नाम पर जानवरों की हत्या करने वालों में से कई लोग महिलाओं और बच्चों पर भी हिंसा करने में लिप्त पाए गए.

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