तमिलनाडु में पिछले दिनों हुई भीषण बारिश के बाद चेन्नई में आई बाढ़ से हुए नुकसान पर ज्यादा आंसू बहाने की जरूरत नहीं है. अगर आप उस सड़क के बीच में चल सकते हैं जहां वाहन 60 से 80 किलोमीटर प्रति घंटे की स्पीड पर दौड़ रहे हों, कानों में म्यूजिक प्लग लगा रखे हों और आंखें मोबाइल स्क्रीन पर हों, तो 5-7% चांस तो कुचले जाने का है ही और अगर आप इस 5-7% कुचले जाने के भय से सड़क पर चलना नहीं छोड़ सकते, तो चेन्नई की बाढ़ से क्या डरना?
सारे देश में नदियों, नालों, बीहड़ों, बागों, जंगलों, दलदली इलाकों पर शहर उगाए जा रहे हैं और न बिल्डरों को तमीज है कि वे प्रकृति का खयाल रखें और न ही सब जानने वाली सरकार को. आज पैसा बन जाए, बस यही चाहिए, कल की कल देखी जाएगी.चेन्नई में घरों में कमर तक पानी घुस गया, बसें बंद हो गईं, सड़कों पर नाव चलने लगीं, हर तरफ बदबू फैल गई, खाने का सामान नष्ट हो गया. ठीक है, 4 दिन में सब ठीक हो जाएगा. जीवन फिर चलने लगेगा. नदियों को भरा जाने लगेगा, नालियों में कूड़ा ठूंसा जाने लगेगा, जंगल काटे जाने लगेंगे.
इस तरह की दुर्घटनाओं का क्या, 10-15 साल में एकाध बार होती हैं तो उन के लिए जीना थोड़े छोड़ देंगे? दिल्ली में 1978 की बाढ़ में मौडल टाउन बस्ती डूब गई थी. बहुत नुकसान हुआ था. पर अब 37 सालों में कुछ नहीं हुआ. अगर उस समय मौडल टाउन वाले यमुना के डर से बस्ती खाली कर देते तो बेवकूफ ही कहलाते.
मुंबई में हर 4-5 साल में 8-10 दिन के लिए जान आफत में आ जाती है तो क्या? बाकी दिन तो सिर पर छत रहती है न, दफ्तर चलते हैं न. अगर पर्यावरण वालों की सुनें तो जीना ही मुहाल हो जाए. पर्यावरण वाले तो चाहते हैं कि हम नैशनल पार्कों में हाथियों या शेरों की तरह रह कर प्रकृति के साथ संतुलन बनाए रखें. इन को बता दें कि हम आज की सोचेंगे, कल की नहीं. हमें अपनी चिंता है. पोतेपरपोते अपनी चिंता खुद कर लेंगे. हम आज जो हैं, अपनी मेहनत से हैं. प्रकृति का नाम ले कर हमारा आज का सुख न छीनो. हमें फर्क नहीं पड़ता कि हवा दूषित हो रही है, पानी विषैला हो रहा है, सड़कों पर जाम लगा है, खाना मिलावटी है, आबादी बढ़ रही है, पानी खत्म होने वाला है. जब जो होगा तब की तब देखेंगे. आज अपना दिन खराब न करेंगे. सरकार को कोस तो लिया है. बस कर्तव्य पूरा.
अब लग जाओ अपनी सुविधाओं के लिए पर्यावरण के खिलाफ काम करने के लिए.
जय विज्ञान!
हायहाय विज्ञान!!