नोवल कोरोना वायरस के चलते पारंपरिक शिक्षा पद्धति में बदलाव किए जा रहे हैं. न केवल लौकडाउन के दौरान क्लासेस औनलाइन हुई हैं बल्कि अब यूनिवर्सिटीज भी तकरीबन 6 महीने तक सभी कोर्सेस औनलाइन करने के बारे में सोच रही हैं. आईआईएम तिरूचिरापल्ली के डायरैक्टर भीमराया मैत्री का कहना है कि उन का इंस्ट्टियूट अपने काम करने वाले एग्जिक्यूटिव्स के लिए एग्जिक्यूटिव एमबीए प्रोग्राम औनलाइन मोड में औफर करेगा और इसी तरह का प्लान रैगुलर एमबीए कोर्सेस के लिए भी बनाया जा रहा है. ‘‘हम औनलाइन परीक्षाएं भी करा रहे हैं, विद्यार्थी अपने घर बैठे टैस्ट दे सकते हैं. हम विद्यार्थियों के लिए ईबुक्स भी तैयार करा रहे हैं,’’ मैत्री ने बताया.

वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण पहले ही घोषणा कर चुकी हैं कि देश की 100 से ज्यादा यूनिवर्सिटीज अपने ऐनुअल एग्जाम और रैगुलर क्लासेस औनलाइन मोड में करेंगी. बता दें कि दिल्ली यूनिवर्सिटी के औनलाइन एग्जाम में मुख्य सर्वर ही काम नहीं कर रहा था, जिस के बाद विद्यार्थियों ने सोशल मीडिया पर अपना रोष जताया था. कुछ इसी तरह की दिक्कत विद्यार्थियों को औनलाइन मौक टैस्ट देने में भी आई थी. अगर यही औनलाइन एग्जाम का अर्थ है तो यकीनन यह नई परेशानियां खड़ी करने जैसा है, उन्हें सुलझाने वाला नहीं.

यदि दिल्ली यूनिवर्सिटी की बात करें तो एक क्लास में 70 से 110 के बीच बच्चे होते हैं जिन्हें यदि सब्जैक्ट के अनुसार सैक्शंस में बांटा जाए तो तकरीबन एक क्लास में 60 बच्चे होते हैं. इन 60 बच्चों का आमतौर पर क्लास में एकसाथ पढ़ना मुश्किल होता है. ऐसे में ये औनलाइन कैसे पढ़ेंगे? इस में दोराय नहीं कि कालेज में हर युवा पढ़ने नहीं जाता, बल्कि इस उम्मीद से जाता है कि वहां वह अपनी पढ़ाई के साथसाथ अपनी रुचि की चीजें सीखेगा और आगे बढ़ेगा. क्या औनलाइन शिक्षा उन की यह ख्वाहिश पूरी कर पाएगी?

सैंटर फौर मौनिटरिंग इंडियन इकोनौमी (सीएमआईई) के अनुसार, देश के ग्रैजुएट युवाओं  की बेरोजगारी दर 2017 के 12.1 के मुकाबले 2018 में 13.2 फीसदी हो चुकी थी. इन में सब से ज्यादा बेरोजगारी दर ग्रैजुएट युवाओं की है क्योंकि अनपढ़ या 5वीं और 10वीं कक्षा पास युवा बेलदारी, रिकशा चालक, डिलिवरी बौय या फैक्ट्रियों में नौकरी कर रहे हैं. ग्रैजुएट युवा अपनी महत्त्वाकांक्षा के अनुसार नौकरी करना चाहते हैं, इसलिए उस से कम की नौकरी नहीं कर रहे. जो ग्रैजुएट युवा नौकरीपरस्त हैं, उन में से ज्यादातर अपनी पसंद की नौकरी नहीं कर रहे हैं. इस का स्पष्ट अर्थ है कि भारत अपने ग्रैजुएट युवाओं के लिए उन की साक्षरता के अनुसार नौकरियां उत्पन्न नहीं कर पा रहा है. ऐसे में यह औनलाइन शिक्षा आंकड़ों को सुधार पाएगी या बेरोजगारी दर और बढ़ा देगी, चिंता का विषय है.

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विकास और वृद्धि में अवरोध

सीखना या लर्निंग संसाधन और वातावरण पर निर्भर करता है. हमें बचपन से पढ़ाया गया है कि बच्चे के विकास और वृद्धि को मुख्यतया 4 तत्त्व प्रभावित करते हैं, जो ये हैं – वंशानुक्रम, वातावरण, पोषण और विभिन्नता. इन में वातावरण का मुख्य स्थान है. इसे इस तरह से समझा जा सकता है कि हर युवा के घर में पढ़ाई का माहौल नहीं होता. पढ़ाई के लिए हर किसी के घर में उपयुक्त स्थान भी नहीं होता. औनलाइन पढ़ाई करते समय शायद उसे शोर से दूर पढ़ने को मिल जाए लेकिन उस के बाद क्या? न उस के पास लाइब्रेरी होगी जहां से वह जब चाहे जो किताब उठा कर पढ़ ले, न साथ में बैठ कर कोई पढ़ने और समझाने वाला होगा, न किसी तरह का डिस्कशन हो पाएगा और न ही टीचर्स से हर सवाल का जवाब मांगा जा सकेगा.

जैसा कि ऊपर कहा गया कि हर युवा कालेज पढ़ने के मकसद से नहीं जाता. किसी की रुचि डांस में होती है, किसी की गाने में, किसी की थिएटर में तो किसी की लिखने में. हर कालेज में 9-10 एक्स्ट्रा करीकुलर एक्टिविटीज की सोसाइटीज होती हैं और हर क्लास का अपना डिपार्टमैंट होता है. इन सोसाइटीज में युवा अपने शौक और काबिलीयत से जाते हैं. इन में वे अपना असली हुनर दिखा पाते हैं, परफौर्म करते हैं. कई युवाओं के लिए उन की कालेज की जिंदगी ही ये सोसाइटीज होती हैं. वे अपनी हौबी को अपना कैरियर बनाते हैं. इन सोसाइटीज के औडिशन नए सैमेस्टर शुरू होने के पहले 2 महीनों में हुआ करते थे, जो औनलाइन पढ़ाई में नहीं होंगे. और अगर होंगे भी, तो उन का कोई मतलब नहीं होगा खासकर डांस या थिएटर सोसाइटी का.

कई मध्य और निम्नवर्गीय परिवारों से आए बच्चे कालेज में खुद को पूरी तरह से बदल लेते हैं. नए खुले परिवेश में वे अपने लिए नई राह बना लेते हैं. पढ़ने में अच्छे होने के चलते या अपने हुनर के चलते उन की पारिवारिक हैसियत उन के रास्ते का कांटा नहीं बनती. वे अपनी एक अलग पहचान बनाते हैं, जिस के बल पर उन्हें नौकरी हाथ लगती है. इस बात से तो हम सभी भलीभांति परिचित हैं कि नौकरी व्यक्ति की डिग्री के साथसाथ उस के आत्मविश्वास और सामर्थ्य से मिलती है जो कालेज का माहौल उसे देता है. यही डिस्टैंस लर्निंग और रैगुलर लर्निंग के विद्यार्थियों को एकदूसरे से अलग बनाता था. लेकिन, क्या यह औनलाइन शिक्षा से मुमकिन है, लगता तो नहीं है.

दोस्ती किताबों का शब्द बन कर रह जाएगी

अगर मैं अपनी पक्की दोस्त की बात करूं तो वह वही है जो मुझे कालेज के दूसरे दिन मिली थी. लगभग सभी दोस्त मुझे अपने कालेज के पहले एक महीने में ही मिले थे. एकसाथ क्लास बंक करना, कैंटीन में गप मारना, मूवी देखने जाना, क्लास में जो समझ नहीं आया उसे साथ बैठ कर डिस्कस करना, बैस्टफ्रैंड के साथ लाइब्रेरी में बैठ कर बातें करना, फैस्ट में नाचना, ग्राउंड में सर्दी की धूप खाना और बौल लग जाए तो गुस्सा दिखाना. कितना सब होता है कालेज में, जो दोस्ती गहरी बनाता है.

कालेज के पहले 2 महीने दोस्ती करने में ही निकल जाते हैं, कभी क्लास में आए नए स्टूडैंट से तो दूसरे कोर्स के स्टूडैंट्स से. एक खासीयत कालेज की यह भी है कि वहां आप अपने सीनियर्स को भी दोस्त बनाते हैं. सीनियर्स की खासीयत ही यह होती है कि वे अपने अनुभव तो बताते ही हैं साथ ही गाइडैंस देते हैं जो बहुत काम की होती है, बहुतकुछ सिखाती है.

अब औनलाइन क्लासेस में आप के पास किसी से दोस्ती करने का मौका नहीं होगा. ग्रुप बन भी गया तो आप हर किसी को मैसेज नहीं कर सकते. किसी से बातें करने में रुचि भी तब आती है जब आप जानते हों कि वह व्यक्ति असल में कैसा है. वैसे भी, किसी की सीरत उस की सूरत पर लिखी नहीं होती. हर कोई औनलाइन बात करने में रुचि नहीं रखता. कुछ स्टूडैंट्स तो कालेज में भी इतने शांत होते हैं कि उन की सोशल लाइफ उन के एक्स्ट्रोवर्ट दोस्तों पर निर्भर करती है.

फर्स्ट ईयर के स्टूडैंट्स के लिए कालेज में यह सब नहीं होगा. वे अपने कंप्यूटर या लैपटौप पर पढ़ाई करेंगे और क्लास खत्म होने के बाद अपने दूसरे कामों में लग जाएंगे. एकदो क्लासमेट्स से बात कर भी ली, तो वह दोस्ती साथ निभाने वाली नहीं, बल्कि काम चलाने वाली होगी.

अब नहीं मिलेंगे अनुभव

किसी किस्से को सुनने और उस घटनाक्रम को जीने में बहुत फर्क होता है. आप कह सकते हैं कि कालेज में यह होता है वह होता है, लेकिन जब तक आप खुद कालेज नहीं जाते तब तक आप को असल में पता ही नहीं होता कि कालेज असल में क्या है.

कालेज में पढ़ाई के साथसाथ कई कंपीटिशन होते हैं जिन में प्रोफैसर केवल परमिशन देते हैं और बाकी सारे काम स्टूडैंट्स खुद करते हैं. किसी कंपीटिशन को और्गेनाइज करने के लिए सूची तैयार करना, स्पौंसर्स ढूंढ़ना, क्लासरूम की परमिशन के लिए कालेज के लौजिस्टिक डिपार्टमैंट से बात करना, पोस्टर्स बनाना, प्रोमोशंस करना, अलगअलग स्टूडैंट को काम बांटना, आपस में मीटिंग्स करना, कंपीटिशन वाले दिन सभी क्लासेस में बच्चों को भाग लेने के लिए कहना, जज बनने के लिए प्रोफैसर्स के चक्कर काटना, प्राइज मनी देने के लिए अकाउंट डिपार्टमैंट से फौर्म्स ले कर आना, अलगअलग कालेज के बच्चों से मिलना और अपने कालेज को उन के सामने रिप्रेजैंट करना आदि सभी काम स्टूडैंट्स खुद करते हैं. ऐसा वे साल में एक बार नहीं, कम से कम 4 बार करते हैं.

इस पूरी भागदौड़ से मिले अनुभव उन्हें जीवनभर की सीख दे जाते हैं. बीए के बच्चे मार्केटिंग सीख जाते हैं, साइंस के बच्चे कविताएं लिखने लगते हैं, कौमर्स वाले हौस्पिटैलिटी में हाथ आजमाते हैं. यह सभी घर बैठे क्या हो सकता है? कालेज में फर्स्ट ईयर में जो युवा शांत स्वभाव का होता है वह एक्स्ट्रोवर्ट बन कर निकलता है और एक्स्ट्रोवर्ट इंट्रोवर्ट हो जाता है. फेयरवैल के दिन वह विद्यार्थी स्टेज पर खड़ा मिलता है जिसे कालेज के पहले महीने में क्लास में खड़े होने में भी झिझक महसूस होती थी. प्यार में गिरतेपड़ते युवा संभलना सीख जाते हैं, जो गिरेंगे ही नहीं, वे भला उठना कैसे सीखेंगे? कोई दुख में लिखना सीख जाता है तो कोई गा कर दर्द बयां करता है. रिलेशनशिप के पहले 3 महीने की खुशी भी सब को दिखती है और आखिर के 3 महीनों का दुख भी. लेकिन, इस पूरे प्रोसैस में कितनी ही बातें हैं जो व्यक्ति समझने लगता है, परिपक्व होने लगता है. औनलाइन रिलेशनशिप्स का क्या हाल है, यह तो किसी से छिपा नहीं है.

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विचार उन्मुक्त नहीं होंगे

स्कूल से निकले किशोर और कालेज से निकले युवा के विचारों में उतना ही अंतर है जितना हमारे देश के अमीर और गरीब में है, एक की बात सरकार भी सुनती है और दूसरे की उस के अपने पड़ोसी तक नहीं. स्कूल में बच्चों को नैतिक शिक्षा दी जाती है, किताबें प्रशासन की बढ़ाई और इतिहास मैसोपोटामिया के महत्त्व से भरा होता है. वह किशोर न तो सरकार से सवाल करना जानता है न देश में व्याप्त धर्मकर्म की त्रुटियों को पहचानने की क्षमता रखता है (कम से कम सीबीएसई बोर्ड का स्टूडैंट तो नहीं). जबकि इस से बिलकुल उलट कालेज का युवा अपने विचारों को उड़ान देना जानता है, वह लाल सलाम को भी समझता है और मनुस्मृति को नकारना भी जानता है.

देश की सरकार कैंटीन में समोसे की चटनी के लिए लड़ने वाले इन युवाओं से थरथर कांपती है. जितनी बेबाक इन युवाओं की आवाज है, क्या उतनी बेबाकी उन युवाओं में आ पाएगी जो कालेज का मुंह न देख कर कंप्यूटर की स्क्रीन देखा करेंगे?

धर्म, जाति, राजनीति, सैक्स, लड़कियों की आजादी आदि मामलों में हमारे देश के लोगों की सोच संकीर्ण है. जो कुछ युवा इन विषयों के बारे में सोचनेसमझने की शक्ति रखते हैं उन की गिनती पहले ही बहुत कम है जो औनलाइन शिक्षा के चलते आने वाले समय में शायद और कम हो जाएगी.

घर में बैठे ये युवा न सवालजवाब करेंगे, न प्रोफैसर बारबार कट रही आवाज या नैटवर्क की कमी में अपनी समझाने की शक्ति व्यर्थ करेंगे, न युवाओं को सही माहौल मिलेगा, न वे नए लोगों से मिल खुद को नए वातावरण में ढालने की कोशिश करेंगे, न उन्हें सही गाइडैंस मिलेगी और न ही वे अपने मन की कर सकेंगे. सो, औनलाइन शिक्षा के नतीजे में घर की चारदीवारी में युवाओं के दिमाग की चारदीवारी के किवाड़ भी नहीं खुलेंगे.

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