क्या कभी आप ने बच्चों, किशोरों, वयस्कों और बुजुर्गों तक के गले में ताबीज, काले धागे और विभिन्न देवीदेवताओं की तसवीर वाले लौकेट पहने जाने के पीछे के मनोविज्ञान और धार्मिक पाखंडों के बारे में संजीदगी से सोचा है? साथ ही क्या कभी इस प्रकार की मानवीय फितरत को पढ़ने की कोशिश की है?

इस में कोई शक नहीं कि किसी धर्म विशेष और व्यक्तिगत आस्था को दर्शाने वाले ये प्रतीक चिह्न व्यक्ति के जीवन और उस की सोच के ढंग का आईना होते हैं, जिन में उस व्यक्ति का मन और मस्तिष्क साफसाफ परिलक्षित होता है, लेकिन इस से परे इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि सनातन से मानव जीवन को प्रभावित करते ये सभी धार्मिक पाखंड हमारे दिल में गहरे बैठे उस डर का परिणाम होते हैं जो वास्तविक जीवन में कोई वजूद नहीं रखते और जिन की प्रामाणिकता का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता.

धरती पर सभ्यता के आगाज से ही मानव कई प्रकार के भय से ग्रसित होता आ रहा है. ये मानवीय भय कई प्रकार के होते हैं, जैसे इंसान अंधेरे से डरता है, परीक्षा के परिणाम से उसे भय लगता है, रोग से भय, मृत्यु से भय, ऊंचाई से गिरने का भय, पराए तो पराए अपनों से भय, भूख और गरीबी से भय और न जाने किसकिस तरह के भय से इंसान ग्रसित नहीं होते हैं. कभीकभी तो इंसान को रोशनी से भी डर लगता है. सभी तरह के भय से बचने या मन को झूठी दिलासा देने के लिए धार्मिक पाखंड या अंधविश्वास एक छद्म रक्षाकवच का कार्य करता है और व्यक्ति खुद को आने वाले संकटों से महफूज महसूस करता है.

महान विचारक कार्ल मार्क्स ने कहा था कि धर्म जनता की अफीम होती है. सच पूछें तो यदि धर्म अफीम है तो धर्म से जुड़े विभिन्न पाखंड और दकियानूसी मान्यताएं एक नशे के रूप में काम करती हैं, जिस की रौ में इंसान जीवन की हर घटना को तर्क और विवेक की कसौटी पर नहीं तोल पाता और इस भंवर में अनियंत्रित रूप से फंसता जाता है.

अहम प्रश्न यह है कि आखिर धार्मिक पाखंडों और व्यक्तिगत आस्था के कवच के रूप में टोटकों और अंधविश्वासों के मकड़जाल से मुक्ति का रास्ता क्या है?

एक बात तो स्पष्ट है कि हमारी मानसिकता में गहराई तक जड़ें जमाए हुए इन अटूट अंधविश्वासों को एक झटके में नहीं तोड़ा जा सकता, लेकिन इन पर अनवरत प्रहार कर के इन की पकड़ को कमजोर करने में मदद मिल सकती है.

यह सत्य है कि पाखंडों और अन्य अंधविश्वासों की शुरुआत मन में बसे भय और अनिष्ट की आशंका के कारण होती है. लिहाजा, यह स्वाभाविक है कि हमें अपने दिल में बसे भय पर नियंत्रण की जरूरत है.

मन को करें नियंत्रित

स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि भय ही वह ताकत है, जिस से हमें डर लगता है. डर की शुरुआत मन से होती है और सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति के मन में उथलपुथल कम होती है और भटकाव भी कम होता है.

संकीर्ण सोच वाला व्यक्ति अस्थिर चित्त और कमजोर मनोदशा वाला होता है. वह अनहोनी की आशंका से हकलान हो जाता है और खुद को सुरक्षित महसूस करने के लिए घबराहट में किसी भी प्रकार के पाखंड और जादूटोने का शिकार हो जाता है.

पाखंड का यह रास्ता जीवन की क्षणिक पलायन की स्थिति है जिस से हमें बच कर रहने की जरूरत है.

मन की कमजोरी एक घातक स्थिति है और इस पर नियंत्रण रखना जरूरी है. इस के लिए हमें अपनी सोच में बदलाव लाने की जरूरत है, तभी हम अच्छा सोच कर आगे बढ़ पाएंगे.

नदी पर बने पुल के नीचे बहते पानी को क्या आप ने कभी गौर से देखा है? इस में निडर जीवन और मजबूत मन के अमूल्य दर्शन छिपे होते हैं. यह बहता पानी कभी भी लौट कर वापस अपनी जगह पर नहीं आता. यह हर समय नया होता है और हर समय अबाध गति से बहता रहता है, जिस से सीख लेने की जरूरत है.

इसी प्रकार जीवन में जो गुजर चुका है उस पर चिंता करने की जरूरत नहीं है. हमें पुल के नीचे बहने वाले पानी की तरह हमेशा आगे बढ़ते रहना चाहिए. पुरानी घटनाओं के कटु अनुभवों से मन काफी मजबूत हो जाता है, फालतू बातों से मन विचलित नहीं होता.

प्रत्येक समस्या का समाधान है

यह माना जाता है कि जीवन में समस्याएं 2 तरह की होती हैं. एक प्रकार ऐसा होता है जिस का कोई समाधान नहीं होता. इसलिए ऐसी समस्याओं के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं होती.

दूसरी समस्याएं प्रकृति की होती हैं जिन का कोई न कोई समाधान जरूर होता है. लिहाजा, ऐसी समस्याओं के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है. इन समस्याओं से घिरने की दशा में इंसान को चिंतित और भयभीत होने की कतई आवश्यकता नहीं है.

जीवन को इस प्रकार जीने के सलीके को यदि अपना लिया जाए तो मानव किसी भी प्रकार के भय से ग्रस्त नहीं होता और न ही वह किसी भय के निवारण और समस्या के समाधान के लिए किसी पाखंड और टोटके के झूठे सहारे की तलाश करता है.

सब के अंदर छिपा है एक मोगली

भय के बारे में एक छोटी और रोचक कहानी है. एक गांव के लोग जंगल से भटक कर आए एक शेर के आतंक से काफी परेशान थे. बड़ेबड़े सूरमा भी उस शेर के पास जाने से डरते थे.

गांव का एक छोटा सा बालक संयोग से एक दिन उस शेर के पास जा कर बड़े इतमीनान से बैठा हुआ था. ग्रामीणों ने जब इस हैरतअंगेज घटना को देखा तो वे दहशत में आ गए. आननफानन में ग्रामीणों को उस बच्चे को शेर के पास से दूर हटाने में सफलता मिल गई.

जब वह बच्चा उस शेर के पास से लौट कर आया तो ग्रामीणों ने उसे बहुत डांटा, ‘‘बेवकूफ हो तुम… अकल घास चरने गई है तुम्हारी? शेर से डर नहीं लगता है तुम्हें? वह तुम्हें कच्चा खा जाता…’’

‘‘यह डर क्या होता है? मेरी मां ने तो इस बारे में आज तक मुझे कुछ नहीं बताया. फिर मैं यह कैसे जान पाऊंगा कि डर क्या होता है?’’ बच्चे ने बिना भय जवाब दिया.

सच में डर मन की अवस्था होता है. यह हमारी पारिवारिक पृष्ठभूमि और सामाजिक संस्कारों से भी प्रभावित होता है. यदि हम अपने बच्चों को डराना बंद कर दें, उन्हें संकटों से लड़ना और जूझना सिखाएं, विकट परिस्थितियों में भी अपना धैर्य टूटने न देने की कला में प्रशिक्षित करें और मोगली जैसा साहसी और निडर बनाएं, तो कोई शक नहीं कि आने वाले दशकों में लगभग 8 बिलियन की आबादी की यह धरती कई प्रकार के धार्मिक पाखंडों और अंधविश्वासों के अंधेरे से स्वत: मुक्त हो जाएगी.

श्रीप्रकाश शर्मा 

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