ट्रिपल तलाक के बाद यूनिफौर्म सिविल कोड की मांग उठाई जा रही है. इस के पीछे भावना यह नहीं कि विवाह कानूनों में सुधार हो, भावना यह है कि दूसरे धर्मों के लोगों के कानूनों में दखल दिया जाए और उन्हें जता दिया जाए कि उन्हें हिंदू देश में हिंदू कानूनों के अंतर्गत रहना होगा. सामान्य नागरिक संहिता का मामला इतना आसान नहीं जितना कट्टर हिंदू समझ रहे हैं. अगर यह कानून बना तो इसे देश के अपराध व दीवानी कानूनों की तरह बनाना होगा जिस में सब से पहले तो प्रावधान होगा कि कोई भी विवाह किसी धार्मिक रीतिरिवाज के साथ होगा तो मान्य न होगा.
सौ साल पहले जब कट्टर हिंदू विवाह कानूनों के रिवाजों को कुछ समाजसुधारकों ने सुधारा और सुधरे हुए हिंदू रीतिरिवाजों के अंतर्गत विवाह कराने शुरू किए तो उन विवाहों को विरासत के मामलों में चुनौती दी जाने लगी थी. बहुत से विवाह अदालतों ने खारिज किए थे और विधवाओं व बच्चों को अवैध मान कर संपत्ति में हिस्सा नहीं देने दिया था.
ब्रिटिश सरकार को हिंदू सुधारकों की मांग पर नए कानून बना कर विवाहों को मान्यता देने के कई कानून बनाने पड़े थे. 1956 में राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद की नानुकुर के बावजूद जवाहरलाल नेहरू ने हिंदू विवाह कानूनों में सुधार किए पर वे सुधार सतही थे. हिंदू विवाह आज भी उन्हीं कट्टर रीतिरिवाजों से हो रहे हैं. सामान्य नागरिक संहिता का अर्थ होगा कि पंडित द्वारा कराई गई शादी मान्य न होगी. अगर ऐसा प्रावधान न हुआ और कहा गया कि सामान्य कानून में भी पंडित, पादरी, ग्रंथी, भिक्षु और काजी विवाह करा सकते हैं तो यह सामान्य कानून शब्दों का मखौल उड़ाना होगा. सामान्य व्यक्तिगत कानून की मांग करने वाले कट्टर हिंदुओं को पहले अपनी शादियों में जाति, वर्ण, कुंडली, पंडे, सप्तपदी, फेरे आदि को समाप्त करने को तैयार होना होगा. उन्हें हर तरह की संयुक्त परिवार की संपत्ति को छोड़ना होगा और आय व संपदा करों में संयुक्त संपत्ति शब्दों को हटवाने के लिए तैयार होना होगा.
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