जब कोई व्यक्ति किसी संस्था के लिए ‘उगलत निगलत पीर घनेरी’ वाली दशा को प्राप्त हो जाता है तो उसे उस संस्था का उपाध्यक्ष बना दिया जाता है. उपाध्यक्ष पदाधिकारियों में ईश्वर की तरह होता है, जो होते हुए भी नहीं होता है और नहीं होते हुए भी होता है. वह टीम का 12वां खिलाड़ी होता है, जो पैडगार्ड बांधे बल्ले पर ठुड्डी टिकाए किसी के घायल होने की प्रतीक्षा में लघुशंका तक नहीं जाता और मैच समाप्त होने पर गु्रपफोटो के लिए बुला लिया जाता है.

उपाध्यक्ष कार्यकारिणी का ‘खामखां’ होता है. किसी भी कार्यक्रम के अवसर पर वह ठीक समय पर पहुंच जाता है तथा अध्यक्ष महोदय के स्वास्थ्य की पूछताछ इस तरह करता है जैसे वह उन का बहुत हितैषी हो. वह संस्था के लौन में बाहर टहलता रहता है और अध्यक्ष के आने और खासतौर पर न आने की आहट लेता रहता है. अगर इस बात की पुष्टि हो जाती है कि अध्यक्ष महोदय नहीं आ रहे हैं, तो वह इस बात की जानकारी अपने तक ही बनाए रखता है और बहुत विनम्रता व गंभीरता से बिलकुल पीछे की ओर बैठ जाता है, जैसे उसे कुछ पता ही न हो. जब सचिव आदि अध्यक्ष महोदय के न आने की सूचना देते हैं, जिस का कारण अपरिहार्य होता है और सामान्यत: बहुवचन में होता है, तो वह ऐसा जाहिर करता है जैसे उस के लिए यह सूचना सभी सर्वेक्षणों के विपरीत चुनाव परिणाम आने की सूचना हो.

वह माथे पर चिंता की लकीरें उभारता है और अध्यक्ष महोदय के न आने के पीछे वाले कारणों के प्रति जिज्ञासा उछालता है. फिर कोई गंभीर बात न होने की घोषणा पर संतोष कर के गहरी सांस लेता है. अब वह अध्यक्ष है और संस्था का भार उस के कंधों पर है. आमतौर पर उपाध्यक्ष, अध्यक्ष से संख्या में कई गुना अधिक होते हैं. कई संस्थाओं में अध्यक्ष तो एक ही होता है पर उपाध्यक्ष एक दर्जन तक होते हैं क्योंकि काम करने वालों की तुलना में काम न करने वालों की संख्या हमेशा ही अधिक रहती है.

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