दिल्ली में हुए दंगे जिन्हें मुख्यतौर पर भारतीय जनता पार्टी के कपिल मिश्रा ने खुल्लमखुल्ला पुलिस अधिकारी की मौजूदगी में उकसाया था, में ज्यादा नुकसान औरतों को हुआ जिन के बेटे, पति, पिता, घर, संपत्ति, वाहन नहीं रहे. आदमी आमतौर पर इस तरह के जोखिमों के लिए हर समय तैयार रहते हैं पर सभ्य समाज ने औरतों को अपनी सुरक्षा के मामले में ढीला कर दिया है.

जब दंगों में घर जलते हैं तो मां या पत्नी को ही अधिक चिंता होती है कि 4 घंटे बाद जब सब को भूख लगेगी, वह कहां से खाना लाएगी? जब रात होती है तो उसे चिंता होती है कि दूधमुंहे बच्चों से ले कर जवान लड़कियां कहां सोएंगी? औरतों को दंगों में मारे गए जने का दर्द देर तक भुगतना होता है- सालों तक, जीवन के अंत तक.

पैसा आताजाता रहता है, जानें भी बीमारी या दुर्घटनाओं में जाती हैं पर उस में बाकी दूसरे घर के सदस्य हाथ बंटा कर सांत्वना दे देते हैं. दंगे अचानक होते हैं, घर पर या सड़क पर अचानक बिना गुनाह के कोई मार डालता है, जला डालता है. जो यह कर रहा होता है वह जानवर से भी बदतर होता है, क्योंकि जानवर केवल अपनी सुरक्षा या खाने के लिए मारते हैं, दंगाई तो गिनते हैं कि उन्होंने 10 को मारा या 100 को, 10 गाडि़यां जलाईं या 100, 10 घरों को लूटा या 100 घरों को.

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दंगाई आमतौर पर जानते हैं कि वे भीड़ का हिस्सा होते हैं. अत: बच जाएंगे. दंगाइयों को सरकार पर भरोसा होता है कि वह उन्हें बचाएगी और शिकारों को ही दोषी करार देगी. यह तथ्य भी बहुत पीड़ा देता है.

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