सीबीएसई यानी सैंट्रल बोर्ड औफ सैकंडरी एजुकेशन ने देश के सारे निजी स्कूलों को अपने आर्थिक मामलों की विस्तृत जानकारी जनसाधारण के लिए नैट पर डालने का आदेश जारी किया है, जिस में अध्यापकों के वेतन, हर मद पर किया खर्च, बिल्डिंग के रखरखाव का खर्च आदि शामिल है. महंगी होती शिक्षा से परेशान पेरैंट्स बहुत हल्ला मचा रहे हैं कि शिक्षा व्यवसाय बन गई है और स्कूलों को व्यापार की तरह चला कर संचालक मालिक बन बैठे हैं.

यह बात सही है कि स्कूल अब धंधा बन गए हैं और इस धंधे में लगे लोगों ने एक माफिया बना लिया है, जिस में स्कूली शिक्षा से जुड़ी नौकरशाही पूरी तरह शामिल हो गई है और इस में राजनीति पूरी तरह घुस गई है. बहुत से नेताओं का व्यवसाय स्कूल ही हैं और वे अपनी राजनीति स्कूलों के दफ्तरों से चलाते हैं.

इन स्कूलों पर लगाम लगाने के लिए लगभग कोई संस्था नहीं है. सीबीएसई का मुख्य काम तो पाठ्यक्रम तय करना व परीक्षाएं करवाना है. स्कूल कैसे चलते हैं, यह देखना उस का काम नहीं है पर चूंकि कोई और रैग्युलेटर नहीं है, यह संस्था ही निर्देश जारी करती रहती है, जिन में से ज्यादातर अव्यावहारिक होते हैं और उन से न शिक्षा का स्तर सुधरा है और न ही मुनाफाखोरी बंद हुई है. कहने को तो शिक्षा देना व्यवसाय नहीं, जन सेवा का काम है और स्कूलों की आय पर कर नहीं लगता पर स्कूल अपना लाभ मालिकों या संचालकों में बांट भी नहीं सकते. स्कूलों को ज्यादातर सोसायटियां चलाती हैं पर हर सोसायटी पर परिवारों का कब्जा होता है और कभीकभार पेरैंट्स के दबाव में या नुकसान होने पर खरीदफरोख्त होती है.

स्कूलों का व्यावसायीकरण तो होना ही है, क्योंकि मातापिता खुद मांग करते हैं कि स्कूल में तरहतरह की सुविधाएं हों. आजकल एयरकंडीशंड कमरों की मांग होने लगी है. इनडोर स्विमिंग पूल मांगे जा रहे हैं. साल में एक विदेशी यात्रा हो. बसों का रखरखाव अच्छा हो. स्कूल लिपापुता हो. स्कूल में कौफीकैफे डे या मैक्डोनाल्ड खुला हो. जब इस तरह की शिक्षा से अलग मांगें की जाएंगी तो पैसे तो कोई देगा ही.

अगर स्कूल फटेहाल लगे तो बच्चे खुद को हीन समझते हैं. वे जोर डालते हैं कि ऐसे स्कूल में भेजा जाए जहां फीस ज्यादा हो. मातापिता सामाजिक प्रतिष्ठा पाने के लिए अपनी हैसीयत से बढ़ कर नाम वाले महंगे स्कूल में भेजते हैं. फिर कैसी खर्चों की जांच? कैसा स्पष्टीकरण? यदि आप फाइवस्टार स्कूल में जाएंगे तो 300 की चाय के प्याले का खर्च कैसे पूछ सकते हैं?

निजी स्कूल महंगे हैं तो मातापिता सरकारी स्कूलों में बच्चों को भेजने के लिए स्वतंत्र हैं जहां अच्छे शिक्षक हैं भले रखरखाव खराब हो. अगर मातापिता मिल कर स्कूलों की सेवा करें तो सरकारी स्कूल भी चमचमा उठें. स्कूलों के बढ़ते खर्च के लिए मातापिता जिम्मेदार हैं, सरकार नहीं. कानूनअदालतों को इस डिमांडसप्लाई से दूर रखें. मूर्ख पेरैंट्स यही डिजर्व करते हैं तो कोई बीच में दखल न दे.

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