मोबाइल की घंटी बजी तो दीपा स्क्रीन पर अपनी बड़ी बहन का फोटो देख कर समझ गई कि अवश्य कोई महत्त्वपूर्ण बात होगी, क्योंकि वे निरर्थक बातों के लिए कभी फोन नहीं करतीं. उन्होंने कहा, ‘‘तुझे पता है, बिहार की सारी पैतृक जमीन दोनों भाइयों ने मिल कर, तेरे और मेरे साइन अपनेआप कर के कौडि़यों के भाव बेच दी है. मुझे किसी शुभचिंतक ने फोन से सूचना दी है.’’

सुन कर दीपा सकते में आ गई कि पिता की चिता की आग ठंडी भी नहीं हुई कि उन्होंने ऐसा कदम उठा लिया जैसेकि वे उन के जाने का ही इंतजार कर रहे थे. पिताजी यदि स्वयं बेचते तो सब को बराबर हिस्सा देते, लेकिन अचानक दुर्घटना में उन की मृत्यु हो गई. उन्होंने कई बार दीपा से कहा था कि परिवार में केवल वही आर्थिक अभाव से जूझ रही है, इसलिए जमीन के पैसे से उसे काफी मदद मिलेगी. लेकिन यह घटना अपवाद नहीं है, बल्कि घरघर की कहानी है.

पुश्तैनी संपत्ति में अधिकार

पहले जमाने में संयुक्त परिवार होते थे. अधिकतर परिवारों के सभी पुरुष पैतृक व्यवसाय में लगे होते थे, इसलिए बहनों के विवाह में दहेज के रूप में पैतृक संपत्ति का हिस्सा उन्हें दे देते थे. विवाह के बाद भी उन के हर दुखसुख में भागीदार होते थे और यथासंभव आर्थिक मदद भी करते थे. दूरियां भी कम होती थीं. यहां तक कि यदि कोई स्त्री ससुराल द्वारा परित्यक्ता होती थी या विधवा हो जाती थी, तो उस के भाई या पिता उसे हर तरह का संरक्षण देना अपना नैतिक कर्तव्य समझते थे.

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