दिल्ली में एक बार फिर सडक़ के किनारे सोते 4 लोगों की जान एक ट्रक ने रौंद ले ली. न तो यह पहली बार हुआ कि ट्रक या कार ने स्पीड में सडक़ किनारे सोते लोगों को मारा ही न आखिरी बार. सवाल यह नहीं है कि ट्रक ड्राइवर या कार ड्राइवर इतने लापरवाह क्यों होते हैं, सवाल यह है दिल्ली, मुंबई, बंगलौर, कोलकाता, चेन्नै जैसे अमीर शहरों में भी हम आखिर क्यों नहीं किसी तरह की छत इन लोगों को दिलवा पाते जो किसी न किसी तरह इन शहरों में आकर पेट भरने का इंतजाम तो कर लेते हैं.

इस के लिए जिम्मेदार हमारी सामाजिक व्यवस्था है, हमारी सरकार की प्रायरिटीज और लोगों की मरी हुई फीलिंग हैं. सरकार के पास भव्य सैंट्रल विस्ठा पर 20000 करोड़ रुपए खर्च करने को हैं, दिल्ली की म्यूनिसिपल कौर्पोरेशन की रामलीला मैदान के सामने बेहद ऊंची........मंजिला बिङ्क्षल्डग है पर सडक़ पर सोते लोगों को छत देने के लिए पैसा नहीं है.

यह न सोचें कि देश में पैसा नहीं है. किसी भी सडक़ पर टहल लें. हर 20 गज पर एक बड़ा सा मंदिर, मसजिद या गुरूद्वारा दिख जाएगा जिस में संगमरमर लगा होगा, बुर्ज पर सोना मड़ा होगा, अंदर सोनेचांदी का काम होगा. सरकार इस पूजास्थल तक पहुंचने के लिए शानदार सडक़ बनाएंगी, पुलिस तैनात करेगी, बैरीकेट खड़ा करेंगी.

ये सडक़ पर सोते लोग शहरों पर बोझ नहीं हैं. ये अपना कमाते हैं पर बदले में बेहद कम पाते हैं. जनता जो चढ़ावे में लाखों देती है इन को देख कर नौकमौ चढ़ाती है पर ये ही सडक़ों को साफ करते हैं. कूढ़ा हटाते हैं, शहरों को चलाने में मदद करते हैं पर चूंकि इन के पास आवाज नहीं, तरकीब नहीं, ये दिन में माल ढ़ोने, रिक्षा चलाने, साफसफाई करने के बाद सडक़ों पर सोने को मजदूर हैं.

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