कितनी हैरानी की बात है कि एक तरफ तो हम चांद तक पहुंच चुके हैं और दूसरी ओर आज भी मासिकधर्म पर अंधविश्वास का काला साया मंडरा रहा है. मासिकधर्म किसी भी लड़की या महिला के लिए प्राकृतिक रूप से स्वस्थ होने का संकेत है, लेकिन उसे शर्मसार होने की घटना माना जाता है. उस के बारे में खुल कर बात करने को बेशर्मी माना जाता है. उस के बारे में चोरीछिपे बात की जाती है.
खुल कर बात हो
मासिकधर्म से जुड़े इन्हीं टैबूज को दूर करने की जरूरत पर साथिया फाउंडेशन की फाउंडर डा. प्रीति वर्मा का कहना है कि औरत से जुड़ी इस समस्या पर खुल कर बात की जाए, उस के दर्द को महसूस किया जाए और चुप्पी को तोड़ा जाए. मासिकधर्म को अंधविश्वासों से निकालने के लगातार प्रयास करना जरूरी है.
आज भी समाज में इसे अपवित्र माना जाता है और इस के बारे में लोग बात करने तक से झिझकते हैं. अकसर लड़की को पहली बार मासिकधर्म शुरू होता है तो वह चुपचुप हो जाती है. उसे लगता है कि उसे कोई बीमारी हो गई है. तब उसे बताना होता है कि वह बीमार होने की नहीं वरन स्वस्थ होने की निशानी है. गांवों व पिछड़े क्षेत्रों की लड़कियां इस न एक दर्द, एक परेशानी से गुजरती हैं और कोई उन की उस परेशानी में साझीदार नहीं होता.
डरती हैं लड़कियां
प्रीति आगे बताती हैं कि मासिकधर्म को ले कर आज भी जागरूकता न के बराबर है. लड़कियां दाग से डरती हैं. इस दौरान स्कूल जाना तक छोड़ देती हैं, जिस से उन की पढ़ाईलिखाई का नुकसान होता है. उत्तर प्रदेश स्वास्थ्य विभाग के आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में 28 लाख किशोरियां मासिकधर्म के कारण स्कूल नहीं जाती हैं. इस दौरान अस्वच्छता के चलते वे पेरिवल संक्रमण, सूजन व दर्द से परेशान रहती हैं. जिन के बारे में उन्हें न तो कोई जानकारी देता है न उन की मदद करता है. उन के पास नैपकिन खरीदने तक के पैसे नहीं होते. वे ऐसे गंदे कपड़े का प्रयोग करती हैं, जिस का प्रयोग कोई साफसफाई के लिए भी नहीं करेगा. इस कपड़े को वे घर में छिपा कर रखती हैं. धूप में, खुले में सुखाए बिना कपड़ा इन्फैक्टेड हो जाता है और वैजाइनल फंगल इनफैक्शन व सर्वाइकल कैंसर का कारण बनता है, क्योंकि गीले कपड़े में मौइश्चर रहने से उस में बैक्टीरिया पनपने के अधिक चांसेज होते हैं.