एक इलैक्ट्रिकल ऐप्लायंसिस कंपनी के विज्ञापन में जहां नारी का सम्मान करने का संदेश दिया जा रहा है, वहीं ‘आज की नारी सब पर भारी’ जैसे जुमले भी सुनने को मिलते हैं. उसे आधी आबादी का दर्जा दिया जा रहा है और चारों ओर नारी सशक्तीकरण की बातें की जा रही हैं.
हैरानी की बात तो यह है कि उसी समाज में लड़कियों व महिलाओं को पीरियड्स यानी मासिकधर्म के दौरान शारीरिक दर्द का सामना करते हुए अपवित्र होने का मानसिक दंश सहना पड़ता है. इस के बारे में बात और विचारविमर्श करने को बेशर्मी माना जाता है, क्योंकि लोगों को आज भी इस जैविक प्रक्रिया के वैज्ञानिक पहलुओं की जानकारी नहीं है. इस के कारण लड़कियों और महिलाओं को इस दौरान अपवित्र समझा जाता है, उन के साथ अछूतों जैसा व्यवहार किया जाता है, उन्हें धार्मिक उत्सवों में भाग लेने की मनाही होती है और घर के पुरुषों से दूर अलग बिस्तर पर सोने की मजबूरी.
मैंस्ट्रुएशन यानी मासिकधर्म से जुड़े ये अंधविश्वास सालों से ढोए जा रहे हैं. सभी मांएं अपनी बेटियों को इन्हें सिखाती हैं, जिस से विकास के दौर में उन के आत्मविश्वास को गहरी चोट पहुंचती है और उन का व्यक्तित्व विकास रुक जाता है.
बदलाव की बयार
भारत में चर्चा के लिए वर्जित माने जाने वाले मैंस्ट्रुएशन को चर्चा का विषय बनाने और उस पर खुल कर बात करने की शुरुआत की झारखंड के गढ़वा की अदिति गुप्ता ने. पेशे से इंजीनियर और नैशनल इंस्ट्टियूट औफ डिजाइन (एनआईडी), अहमदाबाद से पोस्ट ग्रैजुएट अदिति का कहना है कि बचपन में जब भी टैलीविजन पर सैनिटरी नैपकिन का विज्ञापन आता था और मैं उस के बारे में जानना चाहती थी, तो मेरी मां उस चैनल को बदल देती थीं और जब भी मैं स्पष्ट रूप से बात करना चाहती, तो वे कहतीं कि जब बड़ी हो जाओगी सब जान जाओगी.
पहली बार जब 12 वर्ष की उम्र में मेरे पीरियड्स शुरू हुए तो मां ने मुझे पुराना कपड़ा दिया, जिसे वे खुद भी इस्तेमाल करती थीं. उस दौरान मुझे पेट में दर्द होता था और मेरा पूरा दिन बरबाद हो जाता था. परेशानियां तब और बढ़ जाती थीं, जब मुझे अपने कपड़े अलग धोने पड़ते थे. पीरियड्स खत्म हो जाने के बाद बैडशीट को भी धोना पड़ता था.
समाज में व्याप्त मासिकधर्म से जुड़े अंधविश्वासों और वर्जनाओं के कारण दुकान पर जा कर सैनिटरी नैपकिन खरीदना शर्मनाक माना जाता था. फिर भी इस दौरान मेरे परिवार ने मुझे पूरा सहयोग दिया.
स्कूल में भी जब 9वीं कक्षा में बायोलौजी में इस विषय पर पढ़ाया जाना था, तो हमारे पुरुष अध्यापक ने हमें उस चैप्टर को खुद घर से पढ़ कर आने को कहा. अच्छी शिक्षा के अभाव में जब मैं ने दूसरे शहर के स्कूल में दाखिला लिया, तो वहां के होस्टल में 10 लड़कियों के लिए एक बाथरूम था. जहां कपड़े के पैड को धोना संभव न था. तब मैं ने अपनी रूममेट को सैनिटरी नैपकिन प्रयोग करते देखा, तो मैं ने भी सैनिटरी नैपकिन प्रयोग करने की सोची. जब मैं दुकान से नैपकिन लेने गई, तो दुकानदार ने पैड को पेपर से लपेट कर काली पौलिथीन में डाल कर दिया. तब से आज तक मैं ने अनेक ब्रैंड्स के नैपकिन ट्राई किए और उन के सोखने की क्षमता जांची.
अदिति एनआईडी, अहमदाबाद में तुहीन जो अब उन के पति हैं के संपर्क में आईं. अदिति बताती हैं कि तुहीन मेरे सहपाठी होने के साथसाथ मेरे अच्छे दोस्त भी थे. तुहीन इस विषय पर इंटरनैट से जानकारी प्राप्त करते और मुझे बताते. 2009 में एक प्रोजैक्ट के दौरान मैं ने और तुहीन ने मैंस्ट्रुएशन पर रिसर्च करने का निर्णय लिया और इस बारे में कई लड़कियों, उन के मातापिता, शिक्षकों व गाइनोकोलौजिस्ट्स से बात की. तब हम ने जाना कि स्थितियां आज भी वैसी ही हैं, जैसी 18-20 साल पहले थीं. तब यह प्रोजैक्ट मैंस्ट्रुपीडिया का आधार बना.
क्या है मैंस्ट्रुपीडिया
मैंस्ट्रुपीडिया एक फन गाइड है हैल्दी पीरियड्स की. गूगल पर मैंस्ट्रुपीडिया लिखते ही मैंस्ट्रुएशन यानी मासिकधर्म या माहवारी से संबंधित जानकारियों की लंबी सूची आप के सामने आती है. इस वैबसाइट को बनाने का श्रेय जाता है अदिति गुप्ता और तुहीन पौल को. नवंबर, 2012 को लौंच हुई इस वैबसाइट का उद्देश्य पीरियड्स के बारे में लोगों को जागरूक कराना है और इस से जुड़े अंधविश्वासों को दूर करने के साथसाथ इस दौरान साफसफाई की पूरी जानकारी भी देना है ताकि इस दौरान लड़कियां व महिलाएं ऐक्टिव व हैल्दी रहें और उन के साथ अछूतों जैसा व्यवहार न किया जाए. इस वैबसाइट में मासिकधर्म से जुड़े सामाजिक और वैज्ञानिक पहलुओं की जानकारी है, पाठकों द्वारा अकसर पूछे जाने वाले प्रश्नों के उत्तर हैं व एक ब्लौग है, जहां पाठक अपने अनुभव व आपबीती शेयर कर सकते हैं.
वैबसाइट की सभी जानकारियां विश्व की प्रसिद्ध हैल्थ व मैडिकल संस्थाओं द्वारा प्राप्त की गई हैं. लंदन के गाइनोकोलौजिस्ट डा. महादेव भिडे इस वैबसाइट के मैडिकल सलाहकार हैं. वे वैबसाइट का कंटैंट देखने के साथसाथ इस के सवालजवाब विभाग को भी देखते हैं. जबकि ब्लौग की ऐडिटर दिव्या रोजलीन हैं. अदिति इस वैबसाइट की सहसंस्थापक व मार्केटिंग स्ट्रेटजिस्ट हैं, जबकि तुहीन कहानीकार व इलेस्ट्रेटर.
कौमिक बुक टेल्स औफ चेंज
रंगीन चित्रों व आसान हिंदी व अंगरेजी भाषा में बनाई गई कौमिक बुक टेल्स औफ चेंज का उद्देश्य लड़कियों को इस के माध्यम से पीरियड्स की जानकारी देना है. हिंदी व अंगरेजी में इस कौमिक बुक के लौंच होने के बाद अदिति गुप्ता, तुहीन पौल व रजत मित्तल, जो वैबसाइट के तकनीकी पक्ष को संभालते हैं, इस कौमिक को अन्य भारतीय भाषाओं में भी लौंच करने की योजना बना रहे हैं. इस कौमिक में पूजा, अंजलि व जिया नामक 3 किरदारों को पीरियड्स की जानकारी देने का काम दीदी नामक किरदार को सौंपा गया है, जो मैडिकल स्टूडैंट है.
अदिति कहती हैं कि इस लौजिक को लोगों तक पहुंचाने के लिए हम स्कूलों, एनजीओ व सैनिटरी नैपकिन बनाने वाली कंपनियों का सहयोग लेंगे. यह कौमिक बुक वहां सफल होगी और जानकारी का माध्यम बनेगी, जहां बोलचाल का माध्यम असफल हो जाता है. यह कौमिक उन छोटीछोटी लड़कियों, जो इस कठिन दौर से गुजरती हैं, को बेसिक जानकारी देगी.
फिलहाल यह कौमिक बुक हिंदी व अंगरेजी में बन रही है और अगले 5 वर्षों में अदिति की इस के 15 भारतीय भाषाओं में अनुवाद कराने की योजना है. इस के अलावा 15 पेज की एक कौमिक भी है, जो मैंस्ट्रुएशन से संबंधित आधारभूत जानकारी लड़कियों को सरल भाषा में उपलब्ध कराएगी.
बदलनी होगी सोच
अदिति का मानना है कि मैंस्ट्रुएशन को एक वर्जित विषय बनाने की जिम्मेदारी काफी हद तक हमारे समाज की महिलाओं की ही है. मांएं अपनी बेटियों को शुरू से सिखाती हैं कि शर्म ही तुम्हारा गहना है. ऐसे बैठो, वैसे मत बैठो, इस से बात करो उस से मत करो, खुद को हमेशा ढक कर रखो, अपने शरीर के बारे में किसी से बात मत करो.
दरअसल, यही सोच हमें बदलनी होगी. हमें समाज में यह जानकारी फैलानी होगी कि यह एक बायोलौजिकल प्रोसैस है, जिसे गंदा मानना गलत है. कोई भी लड़की विवाहित होने के बाद इस प्रोसैस के चलते ही मां बनती है, तो यह प्रक्रिया गंदी कैसे हो सकती है?
अदिति का कहना है कि इस वैबसाइट व कौमिक बुक का टारगेट वैसे तो युवा लड़कियां व महिलाएं हैं पर हम पुरुषों व लड़कों तक भी अपनी बात पहुंचाना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें जब महिलाओं के इस बायोलौजिकल प्रौसेस की जानकारी होगी, तभी वे अपने जीवन में आने वाली लड़कियों व महिलाओं की समस्याओं को समझ सकेंगे व उन के साथ सहयोग कर सकेंगे.
मैंस्ट्रुएशन के बारे में खुल कर बात न करने यानी अपनी समस्याओं को शेयर न करने के कारण अधिकांश महिलाएं पीरियड्स के दौरान अनहाइजीनिक माहौल में रहती हैं. वे आधुनिक उत्पादों का प्रयोग नहीं करतीं, जिस के चलते उन्हें वैजाइनल इन्फैक्शन व अन्य कई स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का सामना करना पड़ता है. आप को जान कर हैरानी होगी कि पीरियड्स को शर्म के साथ जोड़ने के कारण केवल 12 फीसदी भारतीय महिलाएं सैनिटरी नैपकिन्स का इस्तेमाल करती हैं.
अदिति उम्मीद करती हैं कि आज की युवा पीढ़ी जो बदलाव की पक्षधर है और समाज में बदलाव चाहती है, हमारे इस मिशन में हमारे साथ होगी और समाज में इस दिशा में सकारात्मक बदलाव आएंगे.