गृहशोभा के मई (प्रथम), 2014 अंक को पढ़ कर यह बात पूरी तरह साबित हो गई है कि हमारी इस प्रिय पत्रिका में सभी उम्र के लोगों के लिए ज्ञान और मनोरंजन की पूरीपूरी सामग्री होती है.

गृहशोभा सिर्फ महिलाओं की लोकप्रिय पत्रिका है, यह कहना गलत है, क्योंकि मेरे और मेरी कई सहेलियों के पति और बड़े होते बच्चे भी गृहशोभा के हमारी तरह ही दीवाने हैं.

टीवी की गोल्डन गर्ल्स के बारे में दी गई जानकारी को पढ़ कर हर कोई इस का दीवाना हो गया. इस के लिए गृहशोभा को धन्यवाद.

हर घर में टीवी के कलाकारों की पैठ घर के सदस्यों की तरह है. भले ही टीवी को बुद्धू बौक्स कहा जाता हो, लेकिन गुणदोष तो सभी में होते हैं. यह व्यक्तिविशेष पर निर्भर करता है कि वह क्या ग्रहण करता है.

सभी स्थायी स्तंभ, पकवानों की विधियां और कहानियों का भी जवाब नहीं.

विमला गुगलानी, चंडीगढ़

 

गृहशोभा का मई (प्रथम), 2014 अंक संग्रहणीय रहा. इस में प्रकाशित लेख ‘मांबेटी का रिश्ता है अनमोल’ सौहार्दपूर्ण रिश्ते की अहमियत को बहुत ही सुरुचिपूर्ण ढंग से उजागर करता है.

यकीनन, एक भरेपूरे परिवार में मां ही वह धुरी होती है, जो अपनी भावनाओं को शब्दों में बयां कर के बेटी को सही दिशा बताती व ज्ञान देती है. मां की ममता का कोई वर्गीकरण नहीं हो सकता. वह स्वयं एक अनूठे निस्वार्थ प्रेम का उदाहरण है.

शशिप्रभा गुप्ता, .प्र.

 

गृहशोभा का मई (प्रथम), 2014 अंक महत्त्वपूर्ण जानकारी से परिपूर्ण है. इस अंक में  प्रकाशित लेख ‘मम्मी को नहीं है पता’ अभिभावकों की आंखें खोलने वाला और वास्तविकता से परिपूर्ण है. गृहशोभा के इस विशिष्ट लेख के द्वारा हमें ऐसी महत्त्वपूर्ण जानकारी मिली कि दिल व दिमाग दोनों से सोचने विचारने को मजबूर हो गए कि हां, हम अभिभावक बच्चों की इन्हीं छोटीछोटी बातों को ही तो नजरअंदाज कर जाते हैं. बहुत कुछ ऐसी बातें भी होती हैं जिन्हें हम जानने की जरूरत ही नहीं समझते, जबकि उन्हें समझने की भी जरूरत होती है.

करीब करीब लगभग प्रत्येक अभिभावक की यही सोच रहती है कि उन का बच्चा सही है. वे इस द्वंद् में भी रहते हैं कि बच्चों की जासूसी उन की निजी स्वतंत्रता का हनन तो नहीं? लेकिन उन की निजी स्वतंत्रता में अभिभावकों की दखलंदाजी अनिवार्य है. बच्चों के साथ क्वालिटी टाइम बिताते हुए उन्हें सही और गलत का फर्क बताएं.

आज के अभिभावकों को यह समझन होगा कि बच्चों को किताबी कीड़ा नहीं बनाना चाहिए. व्यावहारिक शिक्षा के महत्त्व को कतई नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.

पूजा राघव, दिल्ली

 

गृहशोभा का मई (प्रथम), 2014 अंक ‘गोल्डन गर्ल्स’ प्रस्तुतीकरण और लेखों के मामले में सचमुच बेजोड़ है.

‘रियल लाइफ में पैठ बनाते धारावाहिक’ कवर स्टोरी ने गृहशोभा के इस अंक को अलग हट कर बना दिया. मैं ने पूरे मई माह में इस अंक को पूरी तरह ऐंजौय किया.

आदिश्री मक्कड़, नई दिल्ली

 

सर्वश्रेष्ठ पत्र : सोनू अपने पापा के साथ खेल रहा था. उस के पापा उसे कंधों पर बैठा कर घूम रहे थे. तभी सोनू की मम्मी उस के पापा से बोलीं, ‘‘यह क्या आप भी बच्चों के साथ बच्चे बन जाते हो.’’

कभीकभी बड़ों की कुछ हरकतें देख कर हम में से कुछ लोग कह उठते हैं, ‘‘क्या बचपना कर रहे हो बच्चों की तरह.’’

पर शायद यह आप भी नहीं जानते होंगे कि इसी तरह के बचपने से इंसान को ऊर्जा लाइफ टौनिक मिलता है. कभीकभी हम अपनी भागदौड़ में इतने खो जाते हैं कि यह भूल जाते हैं कि हम सब में एक बचपना छिपा है, जो कभीकभार बाहर आ ही जाता है.

वैसे बचपना ही एक ऐसा माध्यम है जिस से कई बार हमें वे बातें पता चलती हैं जिन्हें हम खुद नहीं जानते थे. कई मरतबा ऐसा हुनर भी सामने आ जाता है, जो हमें अब तक पता नहीं होता. पर जब हम उस से रूबरू होते हैं तब हमें पता चलता है कि हमारे अंदर भी एक बालक बैठा है, जो हमें खुद के बचपन का एहसास कराता है.

कई बार यह भी देखने में आता है कि बचपने में खो कर व्यक्ति कुछ पलों के लिए अपने सारे दुख भूल जाता है. रह जाती है तो बस होंठों पर बिखरी मुसकान. इस का एक फायदा यह भी है कि आप को अपने बच्चों को और करीब से जानने का मौका मिलता है और बच्चे भी आप को अपने दिल के करीब पाते हैं. हम एक नई ऊर्जा से भर उठते हैं और फिर से संघर्ष करने के लिए तैयार हो जाते हैं. तो फिर आप किस सोच में हैं? घुलमिल जाएं बच्चों के साथ और उठाएं इस टौनिक का भरपूर फायदा.

पायल श्रीवास्तव, आंध्र प्रदेश

 

गृहशोभा के मई (प्रथम), 2014 अंक में प्रकाशित व्यंग्य ‘मुन्नी बदनाम हुई’ रोचक व सचाई को छूता लगा. वाकई मुन्नी को एज का गे्रस नहीं मिलता. 9-10 साल की मुन्नी भी पूर्णयौवना मानी जाती है. मगर 21-22 साल का मुन्ना नन्हामुन्ना ही माना जाता है.

मीरा हिंगोरानी, दिल्ली

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