हमारा समाज और व्यवस्था 1947 के बाद सब से गहरे संकट के दौर में है. एक तरफ कश्मीर में सीमा को फिर गरम किया जा रहा है, तो दूसरी तरफ घर में ही एक ऐसी विघटनकारी ताकत खड़ी हो गई है जो पूरी सेना व देश के संविधान को चुनौती दे रही है और ऊपर से यह मौजूदा सरकार को निर्देशित करने की भूमिका में भी है. यह संकट न प्राकृतिक है, न बाहरी, हमारे रक्षकों का खुद का बनाया हुआ है. पिछले दिनों मुजफ्फरपुर में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के बयान को इसी आईने की चौखटे में देखा जाना चाहिए. जब वे कह रहे हैं कि उन की सेना देश की सेना से भी बड़ी हो गई है, तो उस के कुछ माने हैं. उन के कथन को सीधे खारिज करने के बजाय उसे समझने की जरूरत है. उन की सेना न तो सीमा पर पाकिस्तान से लड़ने जा रही है और न ही चीन की सेना से डोकलाम में मोरचा लेगी. चूंकि सेना है तो जाहिर है उस का इस्तेमाल भी होगा.

ऐसे में भागवत की सेना के लिए केवल घर बचता है, बल्कि कहा जा सकता है कि इस सेना का घर यानी देश के भीतर इस्तेमाल हो भी रहा है. अभी, लगभग घोषित तौर पर, यह युद्ध अल्पसंख्यकों के खिलाफ हो रहा है, लेकिन वास्तव में सभी दलित, पिछड़े, आदिवासी और गरीब इस सेना के निशाने पर हैं और यह सिलसिला आगे बढ़ा तो निश्चित तौर पर देश को एक बड़े गृहयुद्ध के लिए तैयार रहना होगा?. दरअसल, मुसलमानों के खिलाफ संघ की लड़ाई प्रायोजित है, जिस के लिए उसे अलग से अपने समर्थकों में राष्ट्रवाद की हवा भरनी पड़ती है और फिर उस राष्ट्रवादी गुस्से को मुसलमानों की तरफ मोड़ना पड़ता है. लेकिन यह बात गौर करने की है कि अगर मुसलमानों के खिलाफ लड़ने वाला तबका संघ के इशारे पर अपनी जान देने के लिए तैयार है तो फिर वह उन अपनों, जो उस के स्वाभाविक दुश्मन हैं और जिन को जीवनभर उस ने अपने पैरों की जूती समझ कर उन पर शासन किया है, के साथ क्या सुलूक करेगा, आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है.

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