विरासत की राजनीति भारतीय जनता पार्टी का एक लुभावना नारा है जिस में कम पढ़ेलिखों को तो छोडि़ए, अच्छे पढ़ेलिखे भी फंस जाते हैं. राजाओं के जमाने में राजा का बेटा ही राजा बने का सिद्धांत था. लोकतंत्र में यह गलत है पर जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और अब राहुल गांधी की राजनीति को विरासत की राजनीति ठहराने के साथ इसे लोकतंत्र पर धब्बा बता कर वोट बटोरे जा रहे हैं.

अगर भारतीय जनता पार्टी की रगों में कहीं भी लोकतंत्र के प्रति आस्था होती तो इस आरोप में दम होता. भारतीय जनता पार्टी ने अपनी राजनीति न लोकतंत्र की भावनाओं पर खड़ी की है, न बराबरी के सिद्धांत पर और न ही स्वतंत्र विचारों की रक्षा पर. उस ने अपनी राजनीति पूरी तरह राममंदिर के नाम पर खड़ी की है. राम जन्म स्थल का नाम ले कर एक आंधी उड़ाई है जिस में जनता को पूरी तरह से सफलता से बहकाया गया है.

अगर राम जन्म स्थल ही भाजपा का मुख्य उद्देश्य व लक्ष्य है तो भाजपा कैसे विरासत की राजनीति के विरोध की बात कह सकती है? राम का जन्म अगर अयोध्या के बड़े राजा दशरथ के महल में हुआ था और राजा दशरथ के पुत्र होने के बाद उन्हें राजसिंहासन मिलना तय था तो इसे लोकतंत्र के लिए कैसे आदर्श कहा जा सकता है? जब राजमहल की राजनीति (आश्चर्य है कि सतयुग में इस तरह की राजनीति थी) के कारण राम को गद्दी पर अधिकार छोड़ना पड़ा तो वह छोटे भाई भरत को मिला, किसी अन्य जनता के चुने प्रतिनिधि को नहीं.

ठीक है, उस काल में संविधान जैसी कोईर् चीज नहीं थी, वोटिंग नाम की बात नहीं थी, लेकिन बात आज की हो रही है कि उसी जबान से विरासत को कोसा जाता है और फिर राज्य के वारिस दशरथ पुत्र राम का गुणगान ही नहीं किया जाता, बल्कि उन के लिए मरनामारना भी ठीक माना जाता है. अयोध्या के मंदिर के नाम पर तो हजारों जानें गईं, अब हर साल रामनवमी पर कुछ जानें चली जाती हैं, क्यों, एक वारिस की महत्ता को आज भी कायम रखने के लिए?

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